महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 8 श्लोक 18-31

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अष्टम (8) अध्याय: कर्ण पर्व

महाभारत: कर्ण पर्व: अष्टम अध्याय: श्लोक 18-31 का हिन्दी अनुवाद

जिस वीर ने समस्त काम्बोज, आवन्त्य, केकय, गान्धार, मद्र, मत्स्य, त्रिगर्त, तंगण, शक, पान्चाल, विदेह, कुलिन्द, काशी, कोसल, सुह्य, अंग, बंग, निषाद, पुण्ड्र, चीरक, वत्स, कलिंग, तरल, अश्मक तथा ऋषिक - इन सभी देशों तथा शबर, परहूण, प्रहूण और सरल जाति के लोगों, म्लेच्छ राज्य के अधिपतियों तथा दुर्ग एवं वनों में रहने वाले योद्धाओं को समर भूमि में जीतकर देने वाला बना दिया था। रथियों मे श्रेष्ठ जिस राणा पुत्र ने दुर्योधन की वृद्धि के लिये कंकपत्र युक्त, तीखी धार वाले पैने बाण समूहों द्वारा समस्त शत्रुओं को परास्त करके उनसे कर वसूल किया था, जो दिव्यास्त्रों का ज्ञाता, उत्तम अस्त्रों का जानकार और हमारी सेनाओं का रक्षक था, वह महातेजस्वी धर्मात्मा वैकर्तन कर्ण अपने शूरवीर एवं बलशाली शत्रु पाण्डवों द्वारा कैसे मारा गया ?
देवताओं में देवराज इन्द्र को वृष कहा गया है ( क्योंकि वे जल की वर्षा करते हैं ), इसी प्रकार मनुष्यों में भी कर्ण को वृष कहा जाता था ( क्योंकि वह याचकों के लिये धन की वर्षा करता था ); इन दो के सिवा किसी तीसरे पुरुष को तीनों लोकों में वृष नाम दिया गया हो, यह मैंने नहीं सुना । जैसे घोडों में उच्चैःश्रवा, राजाओं में कुबेर और देवताओं में महेन्द्र श्रेष्ठ हैं, उसी प्रकार कर्ण योद्धाओं में ऊँचा स्थान रखता था। जो पराक्रमशाली, समर्थ एवं शूरवीर नरेशों द्वारा भी कभी जीता नहीं जा सका, जिसने दुर्योधन की वृद्धि के लिये समस्त भूमण्डल पर विजय पायी थी, जिसे अपना सहायक पाकर मगध नरेश जरासंध ने भी सौहार्दवश शानत हो यादवों और कौरवों को छोड़कर भूतल के अन्य नरेशों को ही अपने कारागार में कैद किया था; यह सुनकर मैं शोक के समुद्र में डूब गया हूँ, मानो मेरी नाव बीच समुद्र में जाकर टूट गयी हो।
रथियों में श्रेष्ठ धर्मात्मा कर्ण को द्वैरथ युद्ध में मारा गया सुनकर मैं समुद्र में नौका रहित पुरुष की भाँति शोक सागर में निमग्न हो गया हूँ। संजय ! यदि ऐसे दुःखों से भी मेरी मृत्यु नहीं हो रही है तो मैं ऐसा समझता हूँ कि मेरा यह हृदय वज्र से भी अणिक सुदृढ़ और दुर्भेद्य है। सूत ! कुटुम्बीजनों, सगे सम्बन्धियों और मित्रों के पराभव का यह समाचार सुनकर संसार में मेरे सिवा दूसरा कौन पुरुष होगा, जो अपने जीवन का परित्याग न करे। संजय ! मै विष खाकर, अग्नि में प्रविष्ट होकर तथा पर्वत के शिखर से नीचे गिरकर भी मृत्यु का वरण कर लूँगा। परंतु अब ये कष्टदायक दुःख नहीं सह सकूँगा।

इस प्रकार श्रीमहाभारत कर्णपर्व में धृतराष्ट्र वाक्य विषयक आठवाँ अध्याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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