महाभारत द्रोण पर्व अध्याय 114 श्लोक 16-36
चतुदर्शाधिकशततम (114) अध्याय: द्रोण पर्व (जयद्रथवध पर्व)
संजय ! ऐसे मेरे सैन्यरूपी महासागर का वेगपूर्वक भेदन करके जब पाण्डव श्रेष्ठ सव्यवाची अर्जुन तथा सात्यव वंशी उदार महारथी युयुधान एकमात्र रथ की सहायता से इसके भीतर घुस गये, तब मैं अपनी सेना के शेष रहने की आशा नहीं देखता हैं। उन दोनों अत्यन्त वेगशाली वीरों को वहां सबका उल्लघंन करके घुसे हुए देख तथा सिन्धुराज जयद्रथ की गाण्डीव से छूटे हुए बाणों की सीमा में उपस्थित पाकर काल-प्रेरित कोरवों ने वहां कौन-सा कार्य किया? उस दारुण संहार के समय, जहां मृत्यु के सिवा दूसरी कोई भांति नहीं थी, किस प्रकार उन्होंने कर्तव्य का निश्चय किया ?। संजय ! श्रीकृष्ण और अर्जुन बिना कोई क्षति उठाये युद्धस्थल में मेरी सेना के भीतर घुस गये; परंतु इसमें कोई भी वीर उन दोनों को रोकनेवाला न निकला। हमने दूसरे बहुत-से महारथी योद्धाओं की परीक्षा करके ही उन्हें सेना में भर्ती किया है और यथायोग्य वेतन देकर तथा प्रिय वचन बोलकर उनका सत्कार किया है। तात ! मेरी सेना में कोई भी ऐसा नहीं हैं, जिसे अनादर-पूर्वक रक्खा गया हो। सबको उनके कार्य के अनुरुप ही भोजन और वेतन प्राप्त होता है। तात संजय ! मेरी सेना में ऐसा एक भी योद्धा नहीं रहा होगा, जिसे थोड़ा वेतन दिया जाता हो अथवा बिना वेतन के ही रक्खा गया हो। तात ! मैंने, मेरे पुत्रो ने तथा कुटूम्बीजनों एवं बन्धु–बान्धवों ने सभी सैनिकों का यथाशक्ति दान, मान और आसन देकर सत्कार किया है। तथापि सव्यसाची अर्जुन ने संग्राम भुमि में पहुंचते ही उन सबको पराजित कर दिया है और सात्यकि ने भी उन्हें कुचल डाला है। इसे भाग्य के सिवा और क्या कहा जा सकता है?। संजय ! संग्राम में जिसकी रक्षा की जाती है और जो लोग रक्षक हैं, उन रक्षको सहित रक्षणीय पुरुष के लिये एकमात्र साधारण मार्ग रह गया है पराजय। अर्जुन को समरांगण में सिन्धुराज के सामने खड़ा देख अत्यन्त मोहग्रस्त हुए मेरे पुत्र ने कौन-सा कर्तव्य निश्चित किया ? सात्यकि को रणक्षेत्र में निर्भय-सा प्रवेश करते देख दुर्योधन ने उस समय के लिये कौन-सा कर्तव्य उचित माना?। सम्पूर्ण शस्त्रों की पहुंच से परे होकर जब रथियों में श्रेष्ठ सात्यकि और अर्जुन मेरी सेना में प्रविष्ट हो गये, तब उन्हें देखकर मेरे पुत्रों ने युद्धस्थल में किस प्रकार धैर्य धारण किया?। मैं समझता हूं कि अर्जुन के लिये रथ पर बैठे हुए दशार्ह-नन्दन भगवान् श्रीकृष्ण को तथा शिनिप्रयर सात्यकि को देखकर मेरे पुत्र शोकमग्न हो गये होंगे।सात्यकि और अर्जुन को सेना लांघकर जाते और कौरव सैनिकों को युद्धस्थल से भागते देखकर मैं समझता हूं कि मेरे पुत्र शोक में डूब गये होगें। मेरे मन में यह बात आती है कि अपने रथियों को शत्रु विजय की ओर से उत्साह शून्य होकर भागते और भागने में ही बहादुरी दिखाते देख मेरे पुत्र शोक कर रहे होगें। सात्यकि और अर्जुन ने हमारी रथों की बैठके सूनीकर दी हैं और योद्धाओं को मार गिराया है, यह देखकर मैं सोचता हूं कि मेरे पुत्र बहुत दुखी हो गये होगे। अर्जुन के बाणो से आहत होकर बड़े-बड़े गजराजों को भागते, गिरते और गिरे हुए देखकर मैं समझता हूं कि मेरे पुत्र शोक कर रहे होगें।
« पीछे | आगे » |