महाभारत द्रोण पर्व अध्याय 16 श्लोक 34-54

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प्रथम (16) अध्याय: द्रोण पर्व ( द्रोणाभिषेक पर्व)

महाभारत: द्रोण पर्व: प्रथम अध्याय: श्लोक 34-54 का हिन्दी अनुवाद

राजन ! पाचालदेशीय व्‍याध्रदत ने पचास तीखे बाणों द्वारा द्रोणाचार्य को घायल कर दिया । तब सब लोग जोर जोर से हर्षनाद करने लगे । हर्ष में भरे हुए सिंहसेन ने तुरंत ही महारथी द्रोणाचार्य को घायल करके अन्‍य महारथियों के मन में त्रास उत्‍पन्‍न करते हुए सहसा जोर से अटहास किया । तब द्रोणाचार्य ने आँखे फाड़-फाड़कर देखते हुए धनुष की डोरी साफ कर महान् टंकार घोष करके सिंहसेन पर आक्रमण किया । फिर बलवान् द्रोण ने आक्रमण के साथ ही भल्‍ल नामक दो बाणों द्वारा सिंहसेन और व्‍याघ्रदत के शरीर से उनके कुण्‍डलमण्डित मस्‍तक काट डाले । इसके बाद पाण्‍डवों ने उन अन्‍य महारथियों को भी अपने बाण समूहोंसे मथित करके विनाशकारी यमराज के समान वे युधिष्ठिर के रथ के समीप खड़े हो गये । राजन ! नियम एवं व्रत का पालन करने वाले द्रोणाचार्य युधिष्ठिर के बहुत निकट आ गये । तब उनकी सेना के सैनिकों में महान् हाहाकार मच गया । सब लोग कहने लगे हाय, राजा मारे गये । वहां द्रोणाचार्य का पराक्रम देख कौरव सैनिक कहने लगे, आज राजा दुर्योधन अवश्‍य कृतार्थ हो जायॅगे । इस मुहूर्त में द्रोणाचार्य रणक्षेत्र में निश्‍चय ही राजा युधिष्ठिर को पकड़कर बडे हर्ष के साथ हमारे राजा दुर्योधन के समीप ले आयेंगे । राजन ! जब आपके सैनिक ऐसी बातें कह रहे थे, उसी समय उनके समक्ष कुन्‍तीनन्‍दन महारथी अर्जुन अपने रथ की घरघराहट से सम्‍पूर्ण दिशाओं को प्रतिध्‍वनित करते हुए बड़े वेगसे आ पहॅुचे । वे उस मार-काट से भरे हुए संग्राम में रक्‍त की नदी बहा कर आये थे । उसमें शोणित ही जल था । रथ की भँवरे उठ रही थीं । शूरवीरों की हडिडयाँ उसमें शिलाखण्‍डों के समान बिखरी हुई थीं । प्रेतों के कंकाल उस नदी के कूल-किनारे जान पड़ते थे, जिन्‍हें वह अपने वेग से तोड़-फोड़कर बहाये लिये जाती थी । बाणों के समुदाय उसमें फेनों के बहुत बडे ढेर के समान जान पड़ते थे । प्रास आदि शस्‍त्र उसमें मत्‍स्‍य के समान छाये हुए थे । उस नदी को वेगपूर्वक पार करके कौरव सैनिकों को भगाकर पाण्‍डुनन्‍दन किरीटधारी अर्जुन ने सहसा द्रोणाचार्य की सेनापर आक्रमण किया । वे अपनेबाणों के महान् समुदाय से द्रोणाचार्य को मोह में डालते हुए से आच्‍छादित करने लगे । यशस्‍वी कुन्‍तीकुमार अर्जुन इतनी शीघ्रता के साथ निरन्‍तर बाणों को धनुष पर रखते और छोड़ते थे कि किसी को इन दोनों क्रियाओं में तनिक भी अन्‍तर नहीं दिखायी देता था । महाराज ! न दिशाऍ, न अन्‍तरिक्ष, न आकाश और न पृथि‍वी ही दिखायी देती थी । सम्‍पूर्ण दिशाऍ बाणमय हो रही थीं। राजन ! उस रणक्षेत्र में गाण्‍डीवधारी अर्जुन ने बाणों के द्वारा महान् अन्‍धकार फैला दिया था । उसमे कुछ भी दिखायी नहीं देता था । सूर्यदेव अस्‍ताचल को चले गये, सम्‍पूर्ण जगत् अन्‍धकार से व्‍याप्‍त हो गया, उस समय न कोई शत्रु पहचाना जाता था न मित्र । तब द्रोणाचार्य और दुर्योधन आदि ने अपनी सेनाको पीछे लौटा लिया । शत्रुओं का मन अब युद्ध से हट गया है और वे बहुत डर गये हैं, यह जानकर अर्जुन ने भी धीरे-धीरे अपनी सेनाओं को युद्धभूमि से हटा लिया । उस समय हर्ष मे भरे हुए पाण्‍डव, सृंजय और पाचाल वीर जैसे ऋषिगण सूर्यदेव स्‍तुति करते हैं, उसी प्रकार मनोहर वाणीसे कुन्‍तीकुमार अर्जुन के गुणगान करने लगे ।। इस प्रकार शत्रुओं को जीतकर सब सेनाओं के पीछे श्रीकृष्‍ण सहित अर्जुन बडी प्रसन्‍नता के साथ अपने शिविर को गये । जैसे नक्षत्रों द्वारा चितकबरे प्रतीत होने वाले आकाश में चन्‍द्रमा सुशोभित होते हैं, उसी प्रकार इन्‍द्रनील, पह्राराग, सुवर्ण, वज्रमणि, मॅूगे तथा स्‍फटिक आदि प्रधान-प्रधान मणिरत्‍नों से विभूषित विचित्र रथ में बैठे हुए पाण्‍डुनन्‍दन अर्जुन शोभा पा रहे थे ।

इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्‍तर्गत द्रोणाभिषेकपर्व में द्रोण के प्रथम दिन के युद्ध में सेना को पीछे लौटाने से सम्‍बन्‍ध रखनेवाला सोलहवॉ अध्‍याय पूरा हुआ ।।१६।।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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