महाभारत द्रोण पर्व अध्याय 81 श्लोक 16-25

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एकाशीतितम (81) अध्याय: द्रोण पर्व ( प्रतिज्ञा पर्व )

महाभारत: द्रोण पर्व:एकाशीतितम अध्याय: श्लोक 16-25 का हिन्दी अनुवाद

तब भगवान् शंकर के पार्श्‍व भाग से एक ब्रह्मचारी प्रकट हुआ , जो पिडंल नेत्रो से युक्त , तपस्या को क्षेत्र, बलवान् तथा नील-लोहित वर्ण का था। वह एकाग्रचित हो उस श्रेष्‍ठ धनुष को हाथ में लेकर एक धनुर्धर को जैसे खडा होना चाहिये, वैसे खडा हुआ। फिर उसने बाणसहित उस उत्तम धनुष को विधिपूर्वक खीचा। उस यमय अचिनत्य पराक्रमी पाण्डु पुत्र अर्जुन ने उसका मुद्वी से धनुष पकडना , धनुष की डोरी को खीचना और विशेष प्रकार से उसका खडा होना-इन सब बातों की ओर लक्ष्य रखते हुए भगवान् शकंर के द्वारा उच्चारित मन्त्र को सुनकर मन से ग्रहण कर लिया।तत्पश्चातत अत्यनत बलशाली वी भगवान् शिव ने उस बाण को उसी सरोवर में छोड दिया। फिर उस धनुष को भी वही डाल दिया। तब स्मरण शक्ति से सम्पन्न अर्जुन ने भगवान् शंकर को अत्यन्त प्रसन्न जानकर वनवास के समय जो भगवान् शंकर का दर्शन और वरदान प्राप्त हुआ था , उसका मन-ही-मन चिन्तन किया और यह इच्छा की कि मेरा वह मनोरथ पूर्ण हो।उनके इस अभिप्रायको जानकर भगवान् शंकर ने प्रसन्न हो वरदान के रूप् में वह घोर पाशुपत अस्त्र जो उनकी प्रतिज्ञा की पूर्ति कराने वाला था, दे दिया। भगवान् शंकर से उस दिव्य पाशुपतास्त्र को पुनः प्राप्त करके दुर्धर्ष वीर अर्जुन के शरीर में रोमांच हो आया और उन्हे यह विशवास हो गया कि अब मेरा कार्य पूर्ण हो जायेगा।फिर तो अत्यन्त हर्ष में भरे हुए श्रीकृष्ण और अर्जुन दोनो महापुरुषो ने मस्तक नवाकर भगवान् महेश्रवर को प्रणाम किया और उनकी आज्ञा ले उसी क्षण वे दोनो वीर बडी प्रसन्नता के साथ अपने शिविर को लौट आये।जैसे पूर्वकाल में जम्भासुर के वध की इच्छा रखने वाले इन्द्र और विश्णु महासुरविनाशक भगवान् शंकर की अनुमति पाकर प्रसन्नता पूर्वक लौटे थे। उसी प्रकार श्रीकृष्ण और अर्जुन भी आनन्दित होकर अपने शिविर में आये।  


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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