महाभारत द्रोण पर्व अध्याय 8 श्लोक 20-36
अष्टम (8) अध्याय: द्रोण पर्व ( द्रोणाभिषेक पर्व)
द्रोणाचार्य के धनुष का वेग महान् था । उन्होने अस्त्रो द्वारा आग सी प्रज्वलित कर दी थी । पाण्डव और पाञाल सैनिक उनके पास पहॅुचकर उन्हें रोकने की चेष्टा करने लगे । द्रोणाचार्य ने हाथी, घोड़े और पैदलों सहित उन समस्त योद्धाओं को यमलोक पहॅुचा दिया थोड़ी देर मे भूतल पर रक्त की कीच मचा दी । द्रोणाचार्य ने निरन्तर बाणोंकी वर्षा और उत्तम अस्त्रों का विस्तार करके सम्पूर्ण दिशाओं में बाणों का जाल सा बुन दिया, जो स्पष्ट दिखलायी दे रहा था । पैदल सैनिकों, रथियों, घुड़सवारों तथा हाथीसवारों में सब ओर विचरता हुआ उनका ध्वज बादलोंमें विघुत् सा दृष्टिगोचर हो रहा था । पाँचों श्रेष्ठ केकय राजकुमारों तथा पाञालराज द्रुपद को अपने बाणों से मथकर उदार हृदयवाले द्रोणाचार्यने हाथों में धनुषबाण लेकर युधिष्ठिर की सेना पर आक्रमण किया । यह देख भीमसेन, सात्यकि,धृष्टधुम्न,शैब्यकुमार, काशिराज तथा शिबि गर्जना करते हुए उनके ऊपर बाण-समूहों की वर्षा करने लगे । इन सबके बाण द्रोणाचार्य के सायकोंद्वारा छिन्न-भिन्न एवं निष्फल हो युद्धस्थल मे धरती पर लौटते दिखायी देने लगे, मानो नदियों के द्रीप में ढेर-के-ढेर कास अथवा सरकण्डे काटकर बिछा दिये गये हो । द्रोणाचार्य ने धनुष से छुटे हुए सुवर्णमय विचित्र पंखों से युक्त बाण हाथी, घोड़े और युवकों के शरीर को छेदकर धरती में घुस गये । उस समय उनके पंख रक्त से रॅग गये थे । जैसे वर्षाकाल के मेघों की घटा से आकाश आच्छादित हो जाता है, उसी प्रकार वहां बाणों से विदीर्ण होकर गिरे हुए योद्धाओं के समूहों, रथों, हाथियों और घोड़ों से सारी रणभूमि पट गयी थी। सात्यकि, भीमसे और अर्जुन जिसमें सेनापति थे तथा जिसके भीतर अभिमन्यु, द्रुपद एवं काशिराज जैसे योद्धा मौजूद थे, उस सेनाको तथा अन्यान्य महावीरों को भी द्रोणाचार्य ने समरागण में रौद डाला; क्योंकि वे आपके पुत्रों को ऐश्रर्य की प्राप्ति कराना चाहते थे । राजन ! कौरवेन्द्र ! युद्धस्थल में ये तथा और भी बहुत से वीरोचित कर्म करके महात्मा द्रोणाचार्य प्रलयकाल के सूर्य की भॉति सम्पूर्ण लोकों को तपाकर यहां से स्वर्ग में चले गये । इस प्रकार सुवर्णमय रथवाले शूरवीर द्रोणाचार्य रणक्षेत्र में पाण्डव पक्ष के लाखों योद्धाओं का संहार करके अन्तमें धृष्टधुम्न के द्वारा मार गिराये गये । धैर्यशाली द्रोणाचार्य ने युद्धमें पीठ न दिखानेवाले शूरवीरोंकी एक अक्षौहिणी से भी अधिक सेना का संहार करके पीछे स्वयं भी परम गति प्राप्त कर ली । राजन ! सुवर्णमय रथवाले द्रोणाचार्य अत्यन्त दुष्कर पराक्रम करके अन्तमें पाण्डवों सहित अमगलकारी क्रूरकर्मा पाचालों के हाथ से मारे गये । नरेश्वर ! युद्धस्थल में आचार्य द्रोण के मारे जाने पर आकाश में स्थित अदृश्य भूतों का तथा कौरव-सैनिकों का आर्तनाद सुनायी देने लगा । उस समय स्वर्गलोक, भूलोक, अन्तरिक्षलोक, दिशाओं तथा विदिशाओं को भी प्रतिध्वनित करता हुआ समस्त प्राणियों का अहो ! धिक्कार है ! यह शब्द वहां जोर-जोर से गॅूजने लगा । देवता, पितर तथा जो इनके पूर्ववर्ती भाई-बन्धु थे, उन्होंने भी वहां भरदाजनन्दन महारथी द्रोणाचार्य को मारा गया देखा । पाण्डव विजय पाकर सिंहनाद करने लगे । उनके उस महान् सिंहनाद से पृथ्वी कॉप उठी ।
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