महाभारत द्रोण पर्व अध्याय 9 श्लोक 19-35
नवम (9) अध्याय: द्रोण पर्व ( द्रोणाभिषेक पर्व)
क्या द्रोणाचार्य के रथ को वहन करने वाले वे शीघ्रगामी अश्व पराजित हो गये थे ? तात ! द्रोणाचार्य के सुवर्णमय रथ में जुते हुए और उन्ही नरवीर आचार्य की सवारी में काम आनेवाले वे घोड़े पाण्डव सेना को पार कैसे नहीं कर सके ?। उस सुवर्णभूषित उत्तम रथपर आरूढ़ हो सत्यपराक्रमी द्रोणाचार्य ने युद्धस्थल में क्या ? समस्त जगत् के धनुर्धर जिनकी विधा का आश्रय लेकर जीवन निर्वाह करते हैं, उन सत्य पराक्रमी बलवान् द्रोणाचार्यने युद्ध में क्या किया ? । स्वर्गमें देवराज इन्द्र के समान जो इस लोक मे श्रेष्ठ और समस्त धनुर्धरों में महान् थे, उन भयंकर कर्म करने वाले द्रोणाचार्य का सामना करने के लिये उस रणक्षेत्र मे कौन-कौन से रथी गये थे ? उस समरागण में दिव्य अस्त्रों का प्रयोग करने वाले तथा सुवर्णमय रथपर आरूढ़ हुए महाबली द्रोणाचार्य को देखकर तो समस्त पाण्डव योद्धा भाग खड़े होते थे। भाइयोंसहित धर्मराज युधिष्ठिर ने अपनी सारी सेनाके साथ जाकर धृष्टधुम्नरूपी डोरी की सहायतासे द्रोणाचार्य को घेर तो नहीं लिया ? । निश्चय ही अर्जुन ने अपने सीधे जाने वाले बाणों के द्वारा अन्य रथियों को आगे बढ़ने से रोक दिया था । इसलिये पापकर्मा धृष्टधुम्न द्रोणाचार्य पर चढ़ाई कर सका । किरीटधारी अर्जुन के द्वारा सुरक्षित भयकर स्वभाव वाले धृष्टधुम्न को छोड़कर दूसरे किसी को मैं ऐसा नहीं देखता, जो अत्यन्त तेजस्वी द्रोणाचार्य के वध में समर्थ हो । केकय, चेदि, कारूष, मत्स्य देशीय सैनिकों तथा अन्य भूमिपालों ने आचार्य को उसी प्रकार व्याकुल कर दिया होगा, जैसे बहुत सी चीटियॉ सर्पका विह्रल कर देती है; उसी अवस्था में उन पाण्डव सैनिकों द्वारा सब ओर से घिरे हुए नीच धृष्टधुम्न ने दुष्कर कर्म में लगे हुए द्रोणाचार्य को मार डाला होगा, यही बात मेरे मन में आती है । जो छहो अगों तथा पंचम वेदस्थानीय इतिहास पुराणों सहित चारो वेदो का अध्ययन करके ब्राह्माणों के लिये उसी प्रकार आश्रय बने हुए थे, जैसे नदियों के लिये समुद्र हैं । जो शत्रुओं को संताप देनेवाले तथा ब्राह्राण एवं क्षत्रिय दोनों के धर्मो का अनुष्ठान करने वाले थे, वे वृद्ध ब्राह्राण द्रोणाचार्य शस्त्र द्वारा कैसे मारे गये ? । मैने अमर्ष में भरकर सदा कष्ट भोगने के अयोग्य कुन्तीकुमारों को क्लेश ही दिया है; परंतु मेरे इस बर्ताव को द्रोणाचार्य ने चुपचाप सह लिया था । उनके उसी कर्म का यह वधरूपी फल प्राप्त हुआ है । स्वर्गलोक में इन्द्र के समान जो इस लोक में सबसे श्रेष्ठ थे, उन महान् सत्वशाली, महाबली द्रोणाचार्य को कुन्ती के पुत्रों ने उसी प्रकार मार डाला, जैसे छोटे मत्स्यों ने मिलकर तिमि नामक महामत्स्य को मार डाला हो । यह कैसे सम्भव हुआ ? जो शीघ्रतापूर्वक हाथ चलानेवाले, बलवान, दृढधन्वा तथा शत्रुओं का मर्दन करने वाले थे, कोई भी विजयाभिलाषी वीर जिनके बाणों का लक्ष्य बन जाने पर जीवित नहीं रह सकता था, जिन्हें जीते जी दो शब्दों ने कभी नहीं छोड़ा था- एक तो वेदाध्ययन की इच्छावाले लोगों के समक्ष वेदध्वनि का शब्द और दूसरा धनुर्धारियों के बीच में प्रत्यचा की टकार का शब्द ।
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