महाभारत वन पर्व अध्याय 18 श्लोक 17-33

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अष्‍टादश (18) अध्‍याय: वन पर्व (अरण्‍यपर्व)

महाभारत: वन पर्व: अष्‍टादश अध्याय: श्लोक 17-33 का हिन्दी अनुवाद

‘युद्ध से लौटने या भ्रान्तचित्त होकर भागने पर जब मेरी पीठ में शत्रु के बाणों का आघात लगा हो, उस समय किसी से परास्त न होने वाले मेरे पिता गदग्रज भगवान माधव मुझसे क्या कहेंगे? ‘अथवा पिताजी के बड़े भाई नीलाम्बरधारी मदोत्कट महाबाहु बलरामजी जब यहाँ पधारेंगे, तब वे मुझसे क्या कहेंगे? ‘सूत ! युद्ध से भागने पर मनुष्यों में सिंह के समान पराक्रमी महाधर्नुधर सात्यकि तथा समर विजयी साम्ब मुझसे क्या कहेंगे? ‘सारथे ! दुर्धर्ष वीर चारुदेष्ण, गद, सारण, और महाबाहु अक्रूर मुझसे क्या कहेंगे? ‘मैं शूरवीर, सम्भावित ( सम्मानित ), शान्तस्वभाव तथा सदा अपने को वीर पुरुष मानने वाला समझता हूँ। (युद्ध से भागने पर ) मुझे देखकर झुंड की झुंड एकत्र हुई वृष्णि वीरों की स्त्रियाँ मुझे क्या कहेंगी?' ‘सब लोग यही कहेंगे—‘ यह प्रद्युम्न भयभीत हो महान् संग्राम छोड़कर भाग रहा है; इसे धिक्कार है।‘ उस अवस्था में किसी के मुख से मेरे लिये अच्छे शब्द नहीं निकलेंगे। ‘सूतकुमार ! मेरे अथवा मेरे जैसे किसी भी पुरुष के लिये धिक्कारयुक्त वाणी द्वारा कोई परिहास भी कर दे, तो वह मृत्यु से भी अधिक कष्ट देने वाला है; अतः तू फिर कभी युद्ध छोड़कर न भागना।' ‘मेरे पिता मधुसूदन भगवान श्रीहरि यहाँ की रक्षा का सारा भार मुझ पर रखकर भरतवंशशिरोमणि धर्मराज युधिष्ठिर के यज्ञ में गये हैं। ( आज मुझसे जो अपराध हो गया है,) इसे वे कभी क्षमा नहीं कर सकेंगे। ‘सूतपुत्र ! वीर कृतवर्मा शाल्व का सामना करने के लिये पुरी से बाहर आ रहे थे; किंतु मैंने उन्हें रोक दिया और कहा-- ‘आप यहीं रहिये। मैं शाल्व को परास्त कर दूँगा।' ‘कृतवर्मा मुझे इस कार्य के लिये समर्थ जानकर युद्ध से निवृत्त हो गये।' आज युद्ध छोड़कर जब मैं उन महारथी वीर से मिलूँगा, तब उन्हें क्या जबाब दूँगा? ‘शंख, चक्र और गदा धारण करने वाले कमलनयन महाबाहु एवं अजेय वीर भगवान पुरुषोत्तम जब यहाँ मेरे निकट पदार्पण करेंगे, तब उन्हें क्या उत्तर दूँगा? ‘सात्सकि से बलरामजी से तथा अन्धक और वृष्णि वंश के अन्य वीरों से, जो सदा मुझसे स्पर्धा रखते हैं, मैं क्या कहूँगा? ‘सूतपुत्र ! तेरे द्वारा रण से दूर लाया हुआ मैं इस युद्ध को छोड़कर और पीठ पर बाणों की चोट खाकर विवशतापूर्ण जीवन किसी प्रकार भी नहीं धारण करूँगा।' ‘दारुकनन्दन ! अतः तू शीघ्र ही रथ के द्वारा पुनः संग्राम भूमि की ओर लौटा। आज मुझ पर आपत्ति आने पर भी तू किसी तरह ऐसा बर्ताव न करना। ‘सूतपुत्र ! पीठपर बाणों की चोट खाकर भयभीत हो युद्ध से भागने वाले जीवन को मैं किसी प्रकार भी आदर नहीं देता।' ‘सूतपुत्र ! क्या तू मुझे कायरों की तरह भय से पीड़ित और युद्ध छोड़कर भागा हुआ समझता है? ‘दारुककुमार ! तुझे संग्रामभूमि का परित्याग करना कदापि उचित नहीं था। विशेषतः उस अवस्था में, जब कि मैं युद्ध की अभिलाषा रखता था। अतः जहाँ युद्ध हो रहा है,वहाँ चल।'

इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत अर्जुनाभिगमनपर्व में सौभवधोपाख्यानविषयक अठारहवाँ अध्याय पूरा हुआ।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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