महाभारत शल्य पर्व अध्याय 10 श्लोक 41-68
दशम (10) अध्याय: शल्य पर्व (ह्रदप्रवेश पर्व)
भाई को मारा गया देख सुषेण क्रोध से व्याकुल हो उठा और तुरन्त ही हरसा कट जाने से पैदल हुए से पाण्डुनन्दन नकुलपर बाणों की वर्षा करने लगा । उसने चार बाणों से उनके चारों घोड़ों को मार डाला और पाँच से उनकी ध्वजा काटकर तीन से सारथि के भी प्राण ले लिये। इसके बाद कर्णपुत्र जोर-जोर से सिंहनाद करने लगा।। महारथी नकुल को रथहीन हुआ देख द्रौपदी का पुत्र सुतसोम अपने चाचा की रक्षा के लिये वहाँ दौड़ा आया । तब सुतसोम के उस रथ पर आरूढ़ हो भरतश्रेष्ठ नकुल पर्वत पर बैठे हुए सिंह के समान सुशोभित होने लगे । उन्होंने दूसरा धनुष हाथ मे लेकर सुषेण के साथ युद्ध आरम्भ कर दिया। वे दोनों महारथी वीर बाणों की वर्षाद्वारा एक दूसरे से टक्कर लेकर परस्पर वध के लिये प्रयत्न करने लगे । उस समय सुषेण ने कुपित होकर तीन बाणों से पाण्डुपुत्र नकुल को बींध डाला और सुतसोम की दोनों भुजाओं एवं छाती में बीस बाण मारे । महाराज ! तत्पश्चात् शत्रुवीरों का संहार करने वाले पराक्रमी नकुल ने कुपित हो बाणों की वर्षा से सुषेण की सम्पूर्ण दिशाओं को आच्छादित कर दिया । इसके बाद तीखी धार वाले एक अत्यन्त तेज और वेगशाली अर्धचन्द्राकार बाण लेकर उसे समरांगण में कर्णपुत्र पर चला दिया । नृपश्रेष्ठ ! उस बाण से नकुल ने सम्पूर्ण सेनाओं के देखते-देखते सुषेण का मस्तक धड़ से काट गिराया। वह अद्भुत-सी घटना हुई थी। महामनस्वी नकुल के हाथ से मारा जाकर सुषेण पृथ्वी पर गिर पड़ा, मानों नदी के वेग से कटकर महान् तटवर्ती वृक्ष धराशायी हो गया हो । भरतश्रेष्ठ ! कर्णपुत्रों का वध और नकुल का पराक्रम देखकर आपकी सेना भय से भाग चली । महाराज ! उस समय रणभूमि में शत्रुओं का दमन करनेवाले वीर सेनापति प्रतापी मद्रराज शल्य ने आपकी उस सेना का संरक्षण किया । राजाधिराज ! वे जोर-जोर से सिंहनाद और धनुष की भयंकर टंकार करके कौरवसेना को स्थिर रखते हुए रणभूमि में निर्भय खडे़ थे । राजन् ! सुदृढ़ धनुष धारण करने वाले राजा शल्य से सुरक्षित हो व्यथाशून्य हुए आपके सैनिक समर में सब ओर से शत्रुओं की ओर बढ़ने लगे । नरेश्वर ! आपकी विशाल सेना महाधनुर्धर मद्रराज शल्य को चारों ओर से घेरकर शत्रुओं के साथ युद्ध के लिये खड़ी हो गयी । उधर से सात्यकि, भीमसेन और माद्रीकुमार पाण्डुनन्दन नकुल-सहदेव शत्रुदमन एवं लज्जाशल युधिष्ठिर को आगे करके चढ़ आये । रणभूमि में वे सभी वीर युधिष्ठिर को बीच में करके सिंहनाद करने, बाणों और शंखों की तीव्र ध्वनि फैलाने तथा भाँति-भाँति से गर्जना करने लगे । इसी प्रकार आपके समस्त सैनिका मद्रराज को चारों ओर से घेरकर रोष और आवेश से युक्त हो पुनः युद्ध में ही रुचि दिखाने लगे । तदनन्तर मृत्यु को ही युद्ध के निवृत्ति का निमित्त बनाकर आपके और शत्रुपक्ष के योद्धाओं में घोर युद्ध आरम्भ हो गया, जो कायरों का भय बढ़ाने वाला था । राजन् ! प्रजानाथ ! जैसे पूर्वकाल में देवताओं और असुरों का युद्ध हुआ था उसी प्रकार भयशून्य कौरवों और पाण्डवों में यमराज के राज्य की वृद्धि करने वाला भयंकर संग्राम होने लगा । नरेश्वर ! तदनन्तर पाण्डुनन्दन कपिध्वज अर्जुन ने भी संशप्तकों का संहार करके रणभूमि में उस कौरवसेना पर आक्रमण किया । इसी प्रकार धृष्टधुम्न आदि समस्त पाण्डव वीर पैने बाणों की वर्षा करते हुए आपकी उस सेना पर चढ़ आये ।। पाण्डवों के बाणों से आच्छादित हुए कौरव-योद्धाओं पर मोह छा गया। उन्हें दिशाओं अथवा विदिशाओं का भी ज्ञान न रहा । पाण्डवों के चलाये हुए पैने बाणों से व्याप्त हो कौरव सेना के मुख्य-मुख्य वीर मारे गये। वह सेना नष्ट होने लगी और चारों ओर से उसकी गति अवरुद्ध हो गयी । राजन् ! महारथी पाण्डुपुत्र कौरवसेना का वध करने लगे। इसी प्रकार आपके पुत्र भी पाण्डवसेना के सैकड़ों, हजारों वीरों का समरांगण में सब ओर से अपने बाणों द्वारा संहार करने लगे । जैसे वर्षाकाल में दो नदियाँ एक दूसरी के जल से भरकर व्याकुल-सी हो उठती हैं, उसी प्रकार आपस की मार खाती हुई वे दोनों सेनाएँ अत्यन्त संतप्त हो उठीं । राजेन्द्र ! उस अवस्था में उस महासमर में खडे़ हुए आपके और पाण्डव योद्धाओं के मन में भी दुःसह एवं भारी भय समा गया ।
« पीछे | आगे » |