महाभारत शल्य पर्व अध्याय 17 श्लोक 37-50

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सप्तदश (17) अध्याय: शल्य पर्व (ह्रदप्रवेश पर्व)

महाभारत: शल्य पर्व: सप्तदश अध्याय: श्लोक 37-50 का हिन्दी अनुवाद

उस समय श्रीकृष्ण के वचन को स्मरण करके उन्होंने शीघ्र ही शल्य को मार डालने का निश्चय किया। धर्मराज के घोडे़ और सारथि तो मारे ही जा चुके थे केवल रथ शेष था, अतः उसी पर खडे़ होकर उन्होंने शल्यपर शक्ति के ही प्रयोग का विचार किया । महात्मा युधिष्ठिर ने महामना शल्य के पूवोक्त कर्म को देख सुनकर और उन्हें अपना ही भाग अवशिष्ट जानकर, जैसा श्रीकृष्ण ने कहा था उसके अनुसार शल्य के वध का संकल्प किया।। धर्मराज ने मणि और सुवर्णमय दण्ड से युक्त तथा सोने के समान प्रकाशित होने वाली शक्ति हाथ में ली और मन-ही-मन कुपित हो सहसा रोष से जलती हुई आँखें फाड़कर मद्रराज शल्य की ओर देखा । नरदेव ! पापरहित, पवित्र अन्तःकरण वाले, राजा युधिष्ठिर के रोषपूर्वक देखने पर भी मद्रराज शल्य जलकर भस्म नहीं हो गये, यह मुझे अद्भुत बात जान पड़ती है । तदनन्तर कौरव-शिरोमणि महात्मा युधिष्ठिर ने सुन्दर एवं भयंकर दण्डवाली तथा उत्तम मणियों से जटित होने के कारण प्रज्वलित दिखायी देनेवाली उस देदीप्मान शक्ति को मद्रराज शल्य के ऊपर बडे़ वेग से चलाया । बलपूर्वक फेंकी जाने से प्रज्वलित हुई तथा आग की चिनगारियाँ छोड़ती हुई उस शक्ति को, वहाँ आये हुए समस्त कौरवों ने प्रलयकाल में आकाश से गिरने वाली बड़ी भारी उल्का के समान सहसा शल्य पर गिरती देखा । वह शक्ति पाश हाथ में लिये हुए कालरात्रि के समान उग्र, यमराज की धाय के समान भयंकर तथा ब्रह्मदण्ड के समान अमोघ थी। धर्मराज ने बडे़ यत्न और सावधानी के साथ युद्ध में उसका प्रयोग किया था । पाण्डवों गन्ध (चन्दन), माला, उत्तम आसन, पेय-पदार्थ और भोजन आदि अर्पण करके सदा प्रयत्नपूर्वक उसकी पूजा की थी। वह प्रलयकालिक संवर्तक नामक अग्नि के समान प्रज्वलित होती और अर्थर्वांगिरस मन्त्रों से प्रकट की गयी कृत्या के समान अत्यन्त भयंकर जान पड़ती थी । त्वष्टा प्रजापति (विश्वकर्मा) ने भगवान शंकर के लिये उस शक्ति का निर्माण किया था। वह शत्रुओं के प्राण और शरीर को अपना ग्रास बना लेने वाली थी तथा जल, थल एवं आकाश आदि में रहनेवाले प्राणियों को भी बलपूर्वक मार डालने में समर्थ थी । उसमें छोटी-छोटी घंटियाँ और पताकाएँ लगी थीं, मणि और हीरे जडे़ गये थे, वैदूर्यमणि के द्वारा उसे चित्रित किया गया था। विश्वकर्मा ने नियमपूर्वक रहकर बडे़ प्रयत्न से उसको बनाया था। वह ब्रह्मद्रोहियों का विनाश करने वाली तथा लक्ष्य वेधने में अचूक थी । बल और प्रयत्न के द्वारा उसका वेग बहुत बढ़ गया था, युधिष्ठिर ने उस समय मद्रराज का वध करने के लिये उसे घोर मंत्रों से अभिमंत्रित करके उत्तम मार्ग के द्वारा प्रयत्नपूर्वक छोड़ा था । जैसे रूद्र ने अन्धकासुरपर प्राणन्तकारी बाण छोड़ा था, उसी प्रकार क्रोध से नृत्य-सा करते हुए धर्मराज युधिष्ठिर ने सुन्दर हाथवाली अपने सुदृढ़ बाँह फैलाकर वह शक्ति शल्यपर चला दी और गरजते हुए कहा- ओ पापी! तू मारा गया।। पूर्वकाल में त्रिपुरों का विनाश करते समय भगवान महेश्वर का जैसा स्वरूप प्रकट हुआ था, वैसा ही शल्य के संहारकाल में उस समय धर्मात्मा युधिष्ठिर का रूप जान पड़ता था। वे अपने किरणसमूहों से प्रभा का पुंज बिखेर रहे थे।। युधिष्ठिर ने उस उत्तम शक्ति को अपना सारा बल लगाकर चलाया था। इसके सिवा, उसके बल और प्रभाव को रोकना किसी के लिये असम्भव था तो भी उसकी चोट सहने के लिये मद्रराज शल्य गरज उठे, मानो हवन की हुई धृतधारा को ग्रहण करने के लिये अग्निदेव प्रज्वलित हो उठे हों । परन्तु वह शक्ति राजा शल्य के मर्मस्थानों को विदीर्ण करके उनके उज्ज्वल एवं विशाल वक्षःस्थल को चीरती तथा विस्तृत यश को दग्ध करती हुई जल की भाँति धरती में समा गयी। उसकी गति कहीं भी कुण्ठित नहीं नहीं होती थी ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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