महाभारत शल्य पर्व अध्याय 18 श्लोक 22-40
अष्टादश (18) अध्याय: शल्य पर्व (ह्रदप्रवेश पर्व)
शकुनि बोला- नरेश्वर युद्धस्थल में रोषामर्ष के वशीभूत हुए वीर स्वामी की आज्ञा का पालन नहीं करते हैं; वैसी दशा में इन पर क्रोध करना उचित नहीं है। यह इनकी उपेक्षा करने का समय नहीं है। हम सब लोग एक साथ हो मद्रराज के महाधनुर्धर सेवकों की रक्षा के लिये हाथी, घोडे़ और रथसहित चलें तथा महान् प्रयत्नपूर्वक एक दूसरे की रक्षा करें । संजय कहते हैं- राजन् ! ऐसा विचारकर सब लोग वहीं गये, जहाँ वे सैनिक मौजूद थे। शकुनि के वैसा कहने पर राजा दुर्योधन विशाल सेना के साथ सिंहनाद करता और पृथ्वी को कँपाता हुआ-सा आगे बढ़ा । भारत ! उस समय आपकी सेना में मार डालो, घायल करो, पकड़ लो, प्रहार करो और टुकडे़-टुकडे़ कर डालो यह भयंकर शब्द गूँज रहा था रणभूमि में मद्रराज के सेवकों को एक साथ धावा करते देख पाण्डवों ने मध्यम गुल्म (सेना) का आश्रय ले उनका सामना किया । प्रजानाथ ! वे मद्रराज के अनुगामी वीर रणभूमि में दो ही घड़ी के भीतर हाथों-हाथ मारे गये दिखायी दिये । वहाँ हमारे पहुँचते ही मद्रदेश के वे वेगशाली वीर काल के गाल में चले गये और शत्रुसैनिक अत्यन्त प्रसन्न हो एक साथ किलकारियाँ भरने लगे । सब ओर कबन्ध खडे़ दिखायी दे रहे थे और सूर्यमण्डल के बीच से वहाँ बड़ी भारी उल्का गिरी । टूटे-फुटे रथों, जूओं और घुरों से, मारे गये महारथियों से तथा धराशायी हुए घोड़ों से भूमि ढक गयी थी । महाराज ! वहाँ समरांगण में बहुत-से योद्धा जूए में बँधे हुए वायु के समान वेगशाली घोड़ों द्वारा इधर-उधर ले जाये जाते दिखायी देते थे । कुछ घोड़े रणभूमि में टूटे पहियों वाले रथों को लिये जा रहे थे और कितने ही अश्व आधे ही रथ को लेकर दसों दिशाओं में चक्कर लगाते थे । जहाँ-तहाँ जोतों से जुड़े हुए घोडे़ और नरश्रेष्ठ रथी गिरते दिखायी दे रहे थे, मानो सिद्ध (पुण्यात्मा) पुरुष पुण्यक्षय होने पर आकाश से पृथ्वी पर गिर पडे़ हों । मद्रराज के उन शूरवीर सैनिकों के मारे जाने पर हमें आक्रमण करते देख विजय की अभिलाषा रखने वाले महारथी पाण्डव-योद्धा शंखध्वनि के साथ बाणों की सनसनाहट फैलाते हुए हमारा सामना करने के लिये बडे़ वेग से आये । हमारे पास पहुँचकर लक्ष्य वेधने में सफल हो प्रहारकुशल पाण्डव-सैनिक अपने धनुष हिलाते हुए जोर-जोर से सिंहनाद करने लगे । मद्रराज की वह विशाल सेना मारी गयी तथा शूरवीर मद्रराज शल्य पहले ही समरभूमि में धराशायी किये जा चुके हैं, यह सब अपनी आँखों देखकर दुर्योधन की सारी सेना पुनः पीठ दिखाकर भाग चली । महाराज ! विजय से उल्लसित होने वाले दृढ़ धनुर्धर पाण्डवों की मार खाकर कौरव-सेना घबरा उठी और भ्रान्त-सी होकर सम्पूर्ण दिशाओं में भागने लगी ।
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