महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 19 श्लोक 17-26
एकोनविंश (19) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
उन्होंने वेदों के सम्पूर्ण वाक्यों तथा शास्त्रों और बृहदारण्यक आदि वेदान्तग्रन्थों को भी पढ़ लिया, परंतु जैसे केले के खम्भे को फाड़ने से कुछ सार नहीं दिखायी देता, उसी प्रकार उन्हें इस जगत् में सार वस्तु नहीं दिखायी दी। कुछ लोग एकान्त भाव का परित्याग करके इस पंच भौतिक शरीर में विभिन्न संकेतों द्वारा इच्छा, द्वेष आदि में आसक्स आत्मा की स्थिति बताते हैं। परंतु आत्मा का स्वरूप तो अत्यन्त सूक्ष्म है। उसे नेत्रों द्वारा देखा नहीं जा सकता, वाणी द्वारा उसका कोई लक्षण नहीं बताया जा सकता। वह समस्त प्राणियों में कर्म की हेतुभूत अविद्या को आगे रखकर- उसी के द्वारा अपने स्वरूप को छिपाकर विद्यमान है। अतः (मनुष्य को चाहिये कि) मनको कल्याण के मार्ग में लगाकर तृष्णा को रोके और कर्मों की परम्परा का परित्याग करके धन-जन आदि के अवलम्ब से दूर हो सुखी हो जाय अर्जुन! इस प्रकार सूक्ष्म बुद्धि से जानने योग्य एवं साधु पुरुषों से सेवित इस उत्तम मार्ग के रहते हुए तुम अनर्थों से मरे हुए अर्थ (धन) की प्रशंसा कैसे करते हो? भरतनन्दन! दान, यज्ञ तथा अतिथि सेवा आदि अन्य कर्मों में नित्य लगे रहने वाले प्राचीन शास्त्र भी इस विषय में ऐसी ही दृष्टि रखते हैं। कुछ तर्कवादी पण्डित भी अपने पूर्वजन्म के दृढत्र संस्कारों से प्रभावित होकर ऐसे मूढ़ हो जाते हैं कि उन्हें शास्त्र के सिद्धान्त को ग्रहण कराना अत्यन्त कठिन हो जाता है। वे आग्रहपूर्वक यही कहते रहते हैं कि ’यह (आत्मा, धर्म, परलोक, मर्यादा आदि) कुछ नहीं है’। किंतु बहुत से ऐसे बहुश्रुत, बोलने में चतुर और विद्वान् भी हैं, जो जनता की सभा में व्याख्यान देते और उपर्युक्त असत्य मत का खण्डन करते हुए सारी पृथ्वी पर विचरते रहते हैं। पार्थ! जिन विद्वानों को हम नहीं जान पाते हैं, उन्हें कोई साधारण मनुष्य कैसे जान सकता है? इस प्रकार शास्त्रों के अच्छे-अच्छे ज्ञाता एवं महान् विद्वान् सुनने में आये हैं(जिनको पहचानना बड़ा कठिन है)। कुन्तीनन्दन! तत्ववेत्ता पुरुष तपस्या द्वारा महान् पद को प्राप्त कर लेता है, और स्वार्थ त्याग के द्वारा सवदा नित्य सुख का अनुभव करता रहता है।
« पीछे | आगे » |