महाभारत सभा पर्व अध्याय 5 श्लोक 33-46
पञ्चम (5) अध्याय: सभा पर्व (लोकपालसभाख्यान पर्व)
कृषि आदि कार्य विश्वसनीय, लोभ रहित और बड़े-बूढ़ों के समय से चले आने वाले कार्यकर्ताओं द्वारा ही कराते हो न ? राजन् ! वीर शिरोमणे ! क्या तुम्हारे कार्यों के सिद्ध हो जाने पर या सिद्धि के निकट पहुँच जाने पर ही लोग जान पाते हैं ? सिद्ध होने से पहले ही तुम्हारे किन्हीं कार्यों को लोग जान तो नहीं लेते। तुम्हारे यहाँ जो शिक्षा देने का काम करते हैं, व धर्म एवं सम्पूर्ण शास्त्रों के मर्मज्ञ विद्वान् होकर ही राजकुमारों तथा मुख्य-मुख्य योद्धाओं को सब प्रकार की आवश्यक शिक्षाएँ देते हैं न ? तुम हजारों मूखों के बदले एक पण्डित को तो ख़रीदते हो न ? अर्थात् आदरपूर्वक स्वीकार करते हो न ? क्योंकि विद्वान् पुरुष ही अर्थ संकट के समय महान् कल्याण कर सकता है। क्या तुम्हारे सभी दुर्ग (किले) धन-धान्य, अस्त्र-शस्त्र, जल, यन्त्र (मशीन), शिल्पी और धनुर्धर सैनिकों से भरे-पूरे रहते हैं ? यदि एक भी मन्त्री मेधावी, शौर्य सम्पत्र, संयमी और चतुर हो तो राजा अथवा राजकुमार को विपुल सम्पत्ति की प्राप्ति करा देता है।
क्या तुम शत्रु पक्ष के अठारह[1]और अपने पक्ष के पंद्रह[2] तीर्थों की तीन-तीन अज्ञात गुप्तचरों द्वारा देख-भाल या जाँच-पड़ताल करते रहते हो ? शत्रु सूदन ! तुम शत्रुओं से अज्ञात, सतत सावधान और नित्य प्रयत्नशील रहकर अपने सम्पूर्ण शत्रुओं की गतिविधि पर दृष्टि रखते हो न ? क्या तुम्हारे पुरोहित विनयशील, कुलीन, बहुज्ञ, विद्वान्, दोषदृष्टि से रहित तथा शास्त्र चर्चा में कुशल हैं ? क्या तुम उनका पूर्ण सत्कार करते हो ?
तुमने अग्निहोत्र के लिये विधिज्ञ, बुद्धिमान् और सरल स्वभाव के ब्राह्मण को नियुक्त किया है न ? वह सदा किये हुए और किये जाने वाले हवन को तुम्हें ठीक समय पर सूचित कर देता है न ? क्या तुम्हारे यहाँ हस्त-पादादि अंगों की परीक्षा में निपुण, ग्रहों-की वक्र तथा अतिचार आदि गतियों एवं उन के शुभशुभ परिणाम आदि को बताने वाला तथा दिव्य, भौम एवं शरीर सम्बन्धी सब प्रकार के उत्पातों को पहले से ही जान लेने में कुशल ज्योतिषी है ? तुम ने प्रधान-प्रधान व्यक्तियों को उनके योग्य महान् कार्यों में मध्यम श्रेणी के कार्यकर्ताओं को मध्यम कार्यों में तथा निम्न श्रेणी के सेवकों को उनकी योग्यता के अनुसार छोटे कामों में ही लगा रक्खा है न ? क्या तुम निश्छल, बाप-दादों के क्रम से चले आये हुए और पवित्र आचार-विचार वाले श्रेष्ठ मन्त्रियों को सदा श्रेष्ठ कर्मों में लगाये रखते हो ? भरत श्रेष्ठ ! कठोर दण्ड के द्वारा तुम प्रजाजनों को अत्यन्त उद्वेग में तो नहीं डाल देते ? मन्त्री लोग तुम्हारे राज्य का न्याय पूर्वक पालन करते हैं न ? जैसे पवित्र याजक पतित यजमान का और स्त्रियाँ काम-चारी पुरुष का तिरस्कार कर देती हैं, उसी प्रकार प्रजा कठोरता पूर्वक अधिक कर लेने के कारण तुम्हारा अनादर तो नहीं करती ?
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ शत्रु पक्ष के मन्त्री, पुरोहित, युवराज, सेनापति, द्वारपाल, अन्तवेंशिक (अन्तःपुर का अध्यक्ष), कारागाराध्यक्ष, कोषाध्यक्ष, यथा योग्य कार्यों में धन को व्यय करने वाला सचिव, प्रदेष्टा (पहरेदारों को काम बताने वाला), नगराध्यक्ष (कोतवाल), कार्य निर्माणकर्ता (शिल्पियों का परिचालक), धर्माध्यक्ष, सभाध्यक्ष, दण्डपाल, दुर्गपाल, राष्ट्र सीमापाल तथा वनरक्षक - ये अठारह तीर्थ हैं, जिन पर राजा को दृष्टि रखनी चाहिये।
- ↑ उपर्युक्त टिप्पणी में अठारह तीथों में से आदि के तीन को छोड़कर शेष पंद्रह तीर्थ अपने पक्ष के भी सदा परीक्षणीय हैं ।