"महाभारत वन पर्व अध्याय 5 श्लोक 17-22": अवतरणों में अंतर
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पंचम (5) अध्याय: वन पर्व (अरण्यपर्व)
उस समय राजा धृतराष्ट्र ने कुपित होकर मुझसे कहा--भारत ! जिस पर तुम्हारी श्रद्धा हो, वहीं चले जाओ। अब मैं इस राज्य अथवा नगर का पालन करने के लिए तुम्हारी सहायता नहीं चाहता। नरेन्द्र ! इस प्रकार राजा धृतराष्ट्र ने मुझे त्याग दिया है। अतः मैं तुम्हें उपदेश देने आया हूँ। मैंने सभा में जो कुछ भी कहा था और पुनः इस समय जो कुछ कर रहा हूँ, वह सब तुम धारण करो। जो शत्रुओं द्वारा दुःसह कष्ट दिये जाने पर भी क्षमा करते हुए अनुकूल अवसर की प्रतीक्षा करता है तथा जिस प्रकार थोड़ी-सी आग को भी लोग घास-फूस आदि के द्वारा प्रज्वलित करके बढ़ा लेते हैं वैसे ही जो मन को वश में रखकर अपनी शक्ति और सहायकों को बढ़ाता है, वह अकेला ही सारी पृथ्वी का उपभोग करता है। राजन ! जिसका धन सहायकों के लिये नहीं बंटा है अर्थात! जिसके धन को सहायक भी अपना ही समझकर भोगते हैं, उसके दुःख में भी वे लोग हिस्सा बँटाते हैं। सहायकों के संग्रह का उपाय है, सहायकों की प्राप्ति हो जाने पर पृथ्वी की ही प्राप्ति हो गयी, ऐसा कहा जाता है। पाण्डुनन्दन ! व्यर्थ की बकवास से रहित सत्य बोलना ही श्रेष्ठ है। अपने सहायक बन्धुओं के साथ बैठ कर समान अन्न का भोजन करना चाहिए। उन सब के आगे अपनी मान बड़ाई तथा पूजा की बातें नहीं करनी चाहियें। ऐसा बर्ताव करने वाला भूपाल सदा उन्नतशील होता है।
युधिष्ठिर बोले-विदुरजी ! मैं उत्तम बुद्धि का आश्रय ले सतत रहकर आप जैसा कहते हैं वैसा ही करूँगा और भी देशकाल के अनुसार आप जो कर्तव्य उचित समझें, वह बतावें, मैं उसका पूर्णरूप से पालन करूँगा।
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