"महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 22 श्लोक 17-29": अवतरणों में अंतर
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द्वाविंश (22) अध्याय: आश्वमेधिक पर्व (अनुगीता पर्व)
संसार के सभी जीव इन्द्रियों के यत्न करते रहने पर भी मेरे बिना उसी प्रकार विषयों का अनुभव नहीं कर सकते, जिस प्रकार कि सूखे गीले काष्ठ कोई अनुभव नहीं कर सकते।
यह सुनकर इन्द्रियों ने कहा- महोदय! यदि आप भी हमारी सहायता लिये बिना ही विषयों का अनुभव कर सकते तो हम आपकी इस बात को सच मान लेतीं।
हमारा लय हो जाने पर भी आप तृप्त रह सकें, जीवन धारण कर सकें और सब प्रकार के भोग भोग सकें तो आप जैसा कहते और मानते हैं, वह सब सत्य हो सकता है।
अथवा हम सब इन्द्रियाँ जीन हो जायँ या विषयों में स्थित रहें, यदि आप अपने संकल्प मात्र से विषयों का यथार्थ अनुभव करने की शक्ति रखते हैं और आपको ऐसा करने में सदा ही सफलता प्राप्त होती है तो जरा नाक के द्वारा रूप का तो अनुभव कीजिये, आँख से रस का तो स्वाद लीजिये और कान के द्वारा गन्धों को तो ग्रहण कीजिये। इसी प्रकार अपनी शक्ति से जिह्वा के द्वारा स्पर्श का, त्वचा के द्वारा शब्द का और बुद्धि के द्वारा स्पर्श का तो अनुभव कीजिये।
आप जैसे बलवान लोग नियमों के बन्धन में नहीं रहते, नियम तो दुर्बलों के लिये होते हैं। आप नये ढंग से नवीन भोगों का अनुभव कीजिये। हम लोगों की जूठन खाना आपको शोभा नहीं देता।
जैस शिष्य श्रुति के अर्थ को जानने के लिये उपदेश करने वाले गुरु के पास जाता है ओर उनसे श्रुति के अर्थ का ज्ञान प्राप्त करके फिर स्वयं उसका विचार और अनुसरण करता है, वैसे ही आप सोते और जागते समय हमारे ही दिखाये हुए भूत और भविष्य विषयों का उपभोग करते हैं।
जो मनरहित मन्दबुद्धि प्राणी हैं, उनमें भी हमारे लिये ही कार्य किये जाने पर प्राण धारण देखा जाता है।
बहुत से संकल्पों का मनन और स्वप्नों का आश्रय लेकर भोग भोगने की इच्छा से पीड़ित हुआ प्राणी विषयों की ओर ही दौड़ता है।
विषय वासना से अनुविदुध संकलप जनित भोगों का उपभोग करके प्राणशक्ति के क्षीण होने पर मनुष्य बिना दरवाजे के घर में घुसे हुए मनुष्य की भाँति उसी तरह शानत हो जाता है, जैसे समिधाओं के जल जाने पर प्रज्वलित अग्रि स्वयं ही बुझ जाती है।
भले ही हम लोगों की अपने-अपने गुणों के प्रति आसक्ति हो और भले ही हम परस्पर एक दूसरे के गुणों को न जान सकें, किंतु यह बात सत्य है कि आप हमारी सहायता के बिना किसी भी विषय का अनुभव नहीं कर सकते। आपके बिना तो हमें केवल हर्ष से ही वंचित होना पड़ता है।
इस प्रकार श्रीमहाभारत आश्वमेधिपर्व के अन्तर्गत अनुगीता पर्व में ब्राह्मणगीता विषयक बाईसवाँ अध्याय पूरा हुआ।
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