"महाभारत द्रोण पर्व अध्याय 12 श्लोक 1-16": अवतरणों में अंतर

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
यहाँ जाएँ:नेविगेशन, खोजें
छो (Text replacement - "पुरूष" to "पुरुष")
छो (Text replacement - "ह्रदय" to "हृदय")
 
पंक्ति 4: पंक्ति 4:
दुर्योधनका वर मॉगना और द्रोणाचार्य का युधिष्ठिर को अर्जुन की अनुपस्थिति में जीवित पकड़ लाने की प्रतिज्ञा करना   
दुर्योधनका वर मॉगना और द्रोणाचार्य का युधिष्ठिर को अर्जुन की अनुपस्थिति में जीवित पकड़ लाने की प्रतिज्ञा करना   


संजय ने कहा – महाराज ! मैं बड़े दु:ख के साथ आपसे उन सब घटनाओं का वर्णन करूँगा । द्रोणाचार्य किस प्रकार गिरे हैं और पाण्‍डवों तथा सृजयों ने कैसे उनका वध किया है ? इन सब बातो को मैने प्रत्‍यक्ष देखा था । सेनापति का पद प्राप्‍त करके महारथी द्रोणाचार्य ने सारी सेना के बीच में आपके पुत्र दुर्योधन से इस प्रकार कहा । राजन ! तुमने कौरव श्रेष्‍ठ गगापुत्र भीष्‍म के बाद जो आज मुझे सेनापति बनाया है, भरतनन्‍दन ! इस कार्य के अनुरूप कोई फल मुझसे प्राप्‍त करो । आज तुम्‍हारा कौन सा मनोरथ पूर्ण करूँ ? तुम्‍हें जिस वस्‍तु की इच्‍छा हो, उसे ही माँग लो । तब राजा दुर्योधन ने कर्ण, दु:शासन आदि के साथ सलाह करके विजयी वीरो में श्रेष्‍ठ एवं दुर्जय आचार्य द्रोणसे इस प्रकार कहा । आचार्य ! यदि आप मुझे वर दे रहे हैं तो रथियों में श्रेष्‍ठ युधिष्ठिर को जीवित पकड़कर यहां मेरे पास ले आइये । आपके पुत्र की वह बात सुनकर कुरूकुल के आचार्य द्रोण सारी सेना को प्रसन्‍न करते हुए इस प्रकार बोले । राजन ! कुन्‍तीकुमार युधिष्ठिर धन्‍य हैं, जिन्‍हें तुम जीवित पकड़ना चाहते हो । उन दुर्धर्ष वीरके वधके लिये आज तुम मुझसे याचना नहीं कर रहे हो । पुरुषसिंह ! तुम्‍हें उनके वधकी इच्‍छा क्‍यों नहीं हो रही है ? दुर्योधन ! तुम मेरे द्वारा निश्चित रूप से युधिष्ठिर का वध कराना क्‍यों नहीं चाहते हो ?  अथवा इसका कारण यह तो नहीं है कि धर्मराज युधिष्ठिर से देष रखनेवाला इस संसार में कोई है ही नहीं । इसीलिये तुम उन्‍हें जीवित देखना और अपने कुल की रक्षा करना चाहते हो अथवा भरतश्रेष्‍ठ ! तुम युद्ध में पाण्‍डवों को जीतकर इस समय उनका राज्‍य वापस दे सुन्‍दर भ्रातृभाव का आदर्श उपस्थित करना चाहते हो । कुन्‍तीपुत्र राजा युधिष्ठिर धन्‍य हैं । उन बुद्धिमान् नरेश का जन्‍म बहुत ही उत्‍तम है और वे जो अजातशत्रु कहलाते हैं, वह भी ठीक है; क्‍योंकि तुम भी उनपर स्‍नेह रखते हो । भारत ! द्रोणाचार्य के ऐसा कहने पर तुम्‍हारे पुत्र के मन का भाव जो सदा उसके ह्रदय में बना रहता था, सहसा प्रकट हो गया । बृहस्‍पति के समान बुद्धिमान् पुरुष भी अपने आकार को छिपा नहीं सकते । राजन ! इसीलिये आपका पुत्र अत्‍यन्‍त प्रसन्‍न होकर इस प्रकार बोला ।  आचार्य ! युद्ध के मैदान में कुन्‍तीपुत्र युधिष्ठिर के मारे जाने से मेरी विजय नहीं हो सकती; क्‍योंकि युधिष्ठिर का वध होनेपर कुन्‍ती के पुत्र हम सब लोगों को अवश्‍य ही मार डालेंगे । सम्‍पूर्ण देवता भी समस्‍त पाण्‍डवोंको रणक्षेत्र में नहीं मार सकते । यदि  सारे पाण्‍डव अपने पुत्रों सहित युद्ध में मार डाले जायँगे तो भी पुरुषोतम भगवान श्रीकृष्‍ण सम्‍पूर्ण नरेशमण्‍डल को अपने वशमें करके समुद्र और वनोंसहित इस सारी समृद्धिशालिनी वसुधा को जीतकर द्रौपदी अथवा कुन्‍ती को दे डालेंगे । अथवा पाण्‍डवों में से जो भी शेष रह जायगा, वही हम लोगोंको शेष नहीं रहने देगा ।
संजय ने कहा – महाराज ! मैं बड़े दु:ख के साथ आपसे उन सब घटनाओं का वर्णन करूँगा । द्रोणाचार्य किस प्रकार गिरे हैं और पाण्‍डवों तथा सृजयों ने कैसे उनका वध किया है ? इन सब बातो को मैने प्रत्‍यक्ष देखा था । सेनापति का पद प्राप्‍त करके महारथी द्रोणाचार्य ने सारी सेना के बीच में आपके पुत्र दुर्योधन से इस प्रकार कहा । राजन ! तुमने कौरव श्रेष्‍ठ गगापुत्र भीष्‍म के बाद जो आज मुझे सेनापति बनाया है, भरतनन्‍दन ! इस कार्य के अनुरूप कोई फल मुझसे प्राप्‍त करो । आज तुम्‍हारा कौन सा मनोरथ पूर्ण करूँ ? तुम्‍हें जिस वस्‍तु की इच्‍छा हो, उसे ही माँग लो । तब राजा दुर्योधन ने कर्ण, दु:शासन आदि के साथ सलाह करके विजयी वीरो में श्रेष्‍ठ एवं दुर्जय आचार्य द्रोणसे इस प्रकार कहा । आचार्य ! यदि आप मुझे वर दे रहे हैं तो रथियों में श्रेष्‍ठ युधिष्ठिर को जीवित पकड़कर यहां मेरे पास ले आइये । आपके पुत्र की वह बात सुनकर कुरूकुल के आचार्य द्रोण सारी सेना को प्रसन्‍न करते हुए इस प्रकार बोले । राजन ! कुन्‍तीकुमार युधिष्ठिर धन्‍य हैं, जिन्‍हें तुम जीवित पकड़ना चाहते हो । उन दुर्धर्ष वीरके वधके लिये आज तुम मुझसे याचना नहीं कर रहे हो । पुरुषसिंह ! तुम्‍हें उनके वधकी इच्‍छा क्‍यों नहीं हो रही है ? दुर्योधन ! तुम मेरे द्वारा निश्चित रूप से युधिष्ठिर का वध कराना क्‍यों नहीं चाहते हो ?  अथवा इसका कारण यह तो नहीं है कि धर्मराज युधिष्ठिर से देष रखनेवाला इस संसार में कोई है ही नहीं । इसीलिये तुम उन्‍हें जीवित देखना और अपने कुल की रक्षा करना चाहते हो अथवा भरतश्रेष्‍ठ ! तुम युद्ध में पाण्‍डवों को जीतकर इस समय उनका राज्‍य वापस दे सुन्‍दर भ्रातृभाव का आदर्श उपस्थित करना चाहते हो । कुन्‍तीपुत्र राजा युधिष्ठिर धन्‍य हैं । उन बुद्धिमान् नरेश का जन्‍म बहुत ही उत्‍तम है और वे जो अजातशत्रु कहलाते हैं, वह भी ठीक है; क्‍योंकि तुम भी उनपर स्‍नेह रखते हो । भारत ! द्रोणाचार्य के ऐसा कहने पर तुम्‍हारे पुत्र के मन का भाव जो सदा उसके हृदय में बना रहता था, सहसा प्रकट हो गया । बृहस्‍पति के समान बुद्धिमान् पुरुष भी अपने आकार को छिपा नहीं सकते । राजन ! इसीलिये आपका पुत्र अत्‍यन्‍त प्रसन्‍न होकर इस प्रकार बोला ।  आचार्य ! युद्ध के मैदान में कुन्‍तीपुत्र युधिष्ठिर के मारे जाने से मेरी विजय नहीं हो सकती; क्‍योंकि युधिष्ठिर का वध होनेपर कुन्‍ती के पुत्र हम सब लोगों को अवश्‍य ही मार डालेंगे । सम्‍पूर्ण देवता भी समस्‍त पाण्‍डवोंको रणक्षेत्र में नहीं मार सकते । यदि  सारे पाण्‍डव अपने पुत्रों सहित युद्ध में मार डाले जायँगे तो भी पुरुषोतम भगवान श्रीकृष्‍ण सम्‍पूर्ण नरेशमण्‍डल को अपने वशमें करके समुद्र और वनोंसहित इस सारी समृद्धिशालिनी वसुधा को जीतकर द्रौपदी अथवा कुन्‍ती को दे डालेंगे । अथवा पाण्‍डवों में से जो भी शेष रह जायगा, वही हम लोगोंको शेष नहीं रहने देगा ।





09:56, 24 फ़रवरी 2017 के समय का अवतरण

द्वादश (12) अध्याय: द्रोण पर्व ( द्रोणाभिषेक पर्व)

महाभारत: द्रोण पर्व: द्वादश अध्याय: श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद

दुर्योधनका वर मॉगना और द्रोणाचार्य का युधिष्ठिर को अर्जुन की अनुपस्थिति में जीवित पकड़ लाने की प्रतिज्ञा करना

संजय ने कहा – महाराज ! मैं बड़े दु:ख के साथ आपसे उन सब घटनाओं का वर्णन करूँगा । द्रोणाचार्य किस प्रकार गिरे हैं और पाण्‍डवों तथा सृजयों ने कैसे उनका वध किया है ? इन सब बातो को मैने प्रत्‍यक्ष देखा था । सेनापति का पद प्राप्‍त करके महारथी द्रोणाचार्य ने सारी सेना के बीच में आपके पुत्र दुर्योधन से इस प्रकार कहा । राजन ! तुमने कौरव श्रेष्‍ठ गगापुत्र भीष्‍म के बाद जो आज मुझे सेनापति बनाया है, भरतनन्‍दन ! इस कार्य के अनुरूप कोई फल मुझसे प्राप्‍त करो । आज तुम्‍हारा कौन सा मनोरथ पूर्ण करूँ ? तुम्‍हें जिस वस्‍तु की इच्‍छा हो, उसे ही माँग लो । तब राजा दुर्योधन ने कर्ण, दु:शासन आदि के साथ सलाह करके विजयी वीरो में श्रेष्‍ठ एवं दुर्जय आचार्य द्रोणसे इस प्रकार कहा । आचार्य ! यदि आप मुझे वर दे रहे हैं तो रथियों में श्रेष्‍ठ युधिष्ठिर को जीवित पकड़कर यहां मेरे पास ले आइये । आपके पुत्र की वह बात सुनकर कुरूकुल के आचार्य द्रोण सारी सेना को प्रसन्‍न करते हुए इस प्रकार बोले । राजन ! कुन्‍तीकुमार युधिष्ठिर धन्‍य हैं, जिन्‍हें तुम जीवित पकड़ना चाहते हो । उन दुर्धर्ष वीरके वधके लिये आज तुम मुझसे याचना नहीं कर रहे हो । पुरुषसिंह ! तुम्‍हें उनके वधकी इच्‍छा क्‍यों नहीं हो रही है ? दुर्योधन ! तुम मेरे द्वारा निश्चित रूप से युधिष्ठिर का वध कराना क्‍यों नहीं चाहते हो ? अथवा इसका कारण यह तो नहीं है कि धर्मराज युधिष्ठिर से देष रखनेवाला इस संसार में कोई है ही नहीं । इसीलिये तुम उन्‍हें जीवित देखना और अपने कुल की रक्षा करना चाहते हो अथवा भरतश्रेष्‍ठ ! तुम युद्ध में पाण्‍डवों को जीतकर इस समय उनका राज्‍य वापस दे सुन्‍दर भ्रातृभाव का आदर्श उपस्थित करना चाहते हो । कुन्‍तीपुत्र राजा युधिष्ठिर धन्‍य हैं । उन बुद्धिमान् नरेश का जन्‍म बहुत ही उत्‍तम है और वे जो अजातशत्रु कहलाते हैं, वह भी ठीक है; क्‍योंकि तुम भी उनपर स्‍नेह रखते हो । भारत ! द्रोणाचार्य के ऐसा कहने पर तुम्‍हारे पुत्र के मन का भाव जो सदा उसके हृदय में बना रहता था, सहसा प्रकट हो गया । बृहस्‍पति के समान बुद्धिमान् पुरुष भी अपने आकार को छिपा नहीं सकते । राजन ! इसीलिये आपका पुत्र अत्‍यन्‍त प्रसन्‍न होकर इस प्रकार बोला । आचार्य ! युद्ध के मैदान में कुन्‍तीपुत्र युधिष्ठिर के मारे जाने से मेरी विजय नहीं हो सकती; क्‍योंकि युधिष्ठिर का वध होनेपर कुन्‍ती के पुत्र हम सब लोगों को अवश्‍य ही मार डालेंगे । सम्‍पूर्ण देवता भी समस्‍त पाण्‍डवोंको रणक्षेत्र में नहीं मार सकते । यदि सारे पाण्‍डव अपने पुत्रों सहित युद्ध में मार डाले जायँगे तो भी पुरुषोतम भगवान श्रीकृष्‍ण सम्‍पूर्ण नरेशमण्‍डल को अपने वशमें करके समुद्र और वनोंसहित इस सारी समृद्धिशालिनी वसुधा को जीतकर द्रौपदी अथवा कुन्‍ती को दे डालेंगे । अथवा पाण्‍डवों में से जो भी शेष रह जायगा, वही हम लोगोंको शेष नहीं रहने देगा ।


'

« पीछे आगे »


टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख