"महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 27 श्लोक 17-24": अवतरणों में अंतर
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यश, प्रभा, भग (ऐश्वर्य), विजय, सिद्धि (ओज) और तेज- ये सात ज्योतियाँ उपर्युक्त आत्मारूपी सूर्य का ही अनुसरण करती हैं। | यश, प्रभा, भग (ऐश्वर्य), विजय, सिद्धि (ओज) और तेज- ये सात ज्योतियाँ उपर्युक्त आत्मारूपी सूर्य का ही अनुसरण करती हैं। | ||
उस ब्रह्मतत्व में ही गिरी, पर्वत, झरनें, नदी और सरिताएँ स्थित हैं, जो ब्रह्मजनित जल बहाया करती हैं। | उस ब्रह्मतत्व में ही गिरी, पर्वत, झरनें, नदी और सरिताएँ स्थित हैं, जो ब्रह्मजनित जल बहाया करती हैं। | ||
नदियों का संगम भी उसी के अत्यन्त गूढ़ | नदियों का संगम भी उसी के अत्यन्त गूढ़ हृदयाकाश में संक्षेप से होता है। जहाँ योगरूपी यज्ञ का विस्तार होता रहता है। वही साक्षात पितामह का स्वरूप है। आत्मज्ञान से तृप्त पुरुष उसी को प्राप्त होते हैं। | ||
जिनकी आशा क्षीण हो गयी है, जो उत्तम व्रत के पालन की इच्दा रखते हैं। तपस्या से जिनके सारे पाप दज्ध हो गये हैं। वे ही पुरुष अपनी बुद्धि को आत्मनिष्ठ करके परब्रह्म की उपासना करते हैं। | जिनकी आशा क्षीण हो गयी है, जो उत्तम व्रत के पालन की इच्दा रखते हैं। तपस्या से जिनके सारे पाप दज्ध हो गये हैं। वे ही पुरुष अपनी बुद्धि को आत्मनिष्ठ करके परब्रह्म की उपासना करते हैं। | ||
विद्या (ज्ञान) के ही प्रभाव से ब्रह्मरूपी वन का स्वरूप समझ में आता है। इस बात को जानने वाले मुनष्य इस वन में प्रवेश करने के उद्देश्य से शम (मनोनिग्रह) की ही प्रशंसा करते हैं, जिससे बुद्धि स्थिर होती है। | विद्या (ज्ञान) के ही प्रभाव से ब्रह्मरूपी वन का स्वरूप समझ में आता है। इस बात को जानने वाले मुनष्य इस वन में प्रवेश करने के उद्देश्य से शम (मनोनिग्रह) की ही प्रशंसा करते हैं, जिससे बुद्धि स्थिर होती है। |
09:58, 24 फ़रवरी 2017 के समय का अवतरण
सप्तविंश (27) अध्याय: आश्वमेधिक पर्व (अनुगीता पर्व)
वहाँ सात स्त्रियाँ निवास सकती हैं, जो लज्जा के मारे अपना मुँह नीचे की ओर किये रहती हैं। वे चिन्मय ज्योति से प्रकाशित होती हैं। वे सबकी जननी हैं और वे उस वन में रहने वाली प्रजा से सब प्रकार के उत्तम रस उसी प्रकार ग्रहण करती हैं, जैसे अनित्यता सत्य को ग्रहण करती है।
सात सिद्ध सप्तर्षि वसिष्ठ आदि के साथ उसी वन में लीन होते और उसी से उत्पन्न होते हैं।
यश, प्रभा, भग (ऐश्वर्य), विजय, सिद्धि (ओज) और तेज- ये सात ज्योतियाँ उपर्युक्त आत्मारूपी सूर्य का ही अनुसरण करती हैं।
उस ब्रह्मतत्व में ही गिरी, पर्वत, झरनें, नदी और सरिताएँ स्थित हैं, जो ब्रह्मजनित जल बहाया करती हैं।
नदियों का संगम भी उसी के अत्यन्त गूढ़ हृदयाकाश में संक्षेप से होता है। जहाँ योगरूपी यज्ञ का विस्तार होता रहता है। वही साक्षात पितामह का स्वरूप है। आत्मज्ञान से तृप्त पुरुष उसी को प्राप्त होते हैं।
जिनकी आशा क्षीण हो गयी है, जो उत्तम व्रत के पालन की इच्दा रखते हैं। तपस्या से जिनके सारे पाप दज्ध हो गये हैं। वे ही पुरुष अपनी बुद्धि को आत्मनिष्ठ करके परब्रह्म की उपासना करते हैं।
विद्या (ज्ञान) के ही प्रभाव से ब्रह्मरूपी वन का स्वरूप समझ में आता है। इस बात को जानने वाले मुनष्य इस वन में प्रवेश करने के उद्देश्य से शम (मनोनिग्रह) की ही प्रशंसा करते हैं, जिससे बुद्धि स्थिर होती है।
ब्राह्मण ऐसे गुण वाले इस पवित्र वन को जानते हैं और तत्त्वदर्शी के उपदेश से प्रबुद्ध हुए आत्मज्ञानी पुरुष उस ब्रह्मवन को शास्त्रत: जानकर शम आदि साधनों के अनुष्ठान में लग जाते हैं।
इस प्रकार श्रीमहाभारत आश्वमेधिकपर्व के अन्तर्गत अनुगीतापर्व मे ब्राह्मणगीतासम्बन्धी सत्ताईसवाँ अध्याय पूरा हुआ।
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