"महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 41 श्लोक 1-5": अवतरणों में अंतर
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ब्रह्माजी ने कहा- महर्षियों! जो पहले महतत्व उत्पन्न हुआ था, वही अहंकार कहा जाता है। जब वहा अहंरूप में प्रादुर्भूत होता है, तब वह दूसरा सर्ग कहलाता है। | ब्रह्माजी ने कहा- महर्षियों! जो पहले महतत्व उत्पन्न हुआ था, वही अहंकार कहा जाता है। जब वहा अहंरूप में प्रादुर्भूत होता है, तब वह दूसरा सर्ग कहलाता है। | ||
यह अहंकार भूतादि विकारों का कारण है, इसलिये वैकारिक माना गया है। यह रजोगुण का स्वरूप है, इसलिये तैजस है। इसका आधार चेतन आत्मा है। सारी प्रजा की सृष्टि इसी से होती है, इसलिये इसको प्रजापति कहते हैं। | यह अहंकार भूतादि विकारों का कारण है, इसलिये वैकारिक माना गया है। यह रजोगुण का स्वरूप है, इसलिये तैजस है। इसका आधार चेतन आत्मा है। सारी प्रजा की सृष्टि इसी से होती है, इसलिये इसको प्रजापति कहते हैं। | ||
यह श्रोत्रादि इन्द्रिय रूप देवों का और मन का उत्पत्ति स्थन एवं स्वयं भी देवस्वरूप है, इसलिये इसे त्रिलोकी का कर्त्ता माना गया है। यह सम्पूर्ण | यह श्रोत्रादि इन्द्रिय रूप देवों का और मन का उत्पत्ति स्थन एवं स्वयं भी देवस्वरूप है, इसलिये इसे त्रिलोकी का कर्त्ता माना गया है। यह सम्पूर्ण जगत् अहंकार स्वरूप है, इसलिये यह अभिमन्ता कहा जाता है। | ||
जो अध्यात्मज्ञान में तृप्त, आत्मा का चिन्तन करने वाले और स्वाध्याय रूपी यज्ञ में सिद्ध हैं, उन मुनिजनों को यह सनातन लोक प्राप्त होता है। | जो अध्यात्मज्ञान में तृप्त, आत्मा का चिन्तन करने वाले और स्वाध्याय रूपी यज्ञ में सिद्ध हैं, उन मुनिजनों को यह सनातन लोक प्राप्त होता है। | ||
समस्त भूतों का आदि और सबाके उत्पन्न करने वाला वह अहंकार आधारभूत जीवात्मा अहंकार के द्वारा सम्पूर्ण गुणों की रचना करता है और उनका उपभोग करता है। यह जो कुछ भी चेष्टाशील | समस्त भूतों का आदि और सबाके उत्पन्न करने वाला वह अहंकार आधारभूत जीवात्मा अहंकार के द्वारा सम्पूर्ण गुणों की रचना करता है और उनका उपभोग करता है। यह जो कुछ भी चेष्टाशील जगत् है, वह विकारों के कारण रूप अहंकार का ही स्वरूप है। वह अहंकार ही अपने तेज से सारे जगत् को रजोमय (भोगों का इच्छुक) बनाता है। | ||
इस प्रकार श्रीमहाभारत आश्वमेधिक पर्व के अन्तर्गत अनुगीतापर्व में गुरु शिष्य संवादविषयक इकतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ। | इस प्रकार श्रीमहाभारत आश्वमेधिक पर्व के अन्तर्गत अनुगीतापर्व में गुरु शिष्य संवादविषयक इकतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ। |
13:50, 30 जून 2017 के समय का अवतरण
एकचत्वारिंश (41) अध्याय: आश्वमेधिक पर्व (अनुगीता पर्व)
अहंकार की उत्पत्ति और उसके स्वरूप का वर्णन
ब्रह्माजी ने कहा- महर्षियों! जो पहले महतत्व उत्पन्न हुआ था, वही अहंकार कहा जाता है। जब वहा अहंरूप में प्रादुर्भूत होता है, तब वह दूसरा सर्ग कहलाता है। यह अहंकार भूतादि विकारों का कारण है, इसलिये वैकारिक माना गया है। यह रजोगुण का स्वरूप है, इसलिये तैजस है। इसका आधार चेतन आत्मा है। सारी प्रजा की सृष्टि इसी से होती है, इसलिये इसको प्रजापति कहते हैं। यह श्रोत्रादि इन्द्रिय रूप देवों का और मन का उत्पत्ति स्थन एवं स्वयं भी देवस्वरूप है, इसलिये इसे त्रिलोकी का कर्त्ता माना गया है। यह सम्पूर्ण जगत् अहंकार स्वरूप है, इसलिये यह अभिमन्ता कहा जाता है। जो अध्यात्मज्ञान में तृप्त, आत्मा का चिन्तन करने वाले और स्वाध्याय रूपी यज्ञ में सिद्ध हैं, उन मुनिजनों को यह सनातन लोक प्राप्त होता है। समस्त भूतों का आदि और सबाके उत्पन्न करने वाला वह अहंकार आधारभूत जीवात्मा अहंकार के द्वारा सम्पूर्ण गुणों की रचना करता है और उनका उपभोग करता है। यह जो कुछ भी चेष्टाशील जगत् है, वह विकारों के कारण रूप अहंकार का ही स्वरूप है। वह अहंकार ही अपने तेज से सारे जगत् को रजोमय (भोगों का इच्छुक) बनाता है।
इस प्रकार श्रीमहाभारत आश्वमेधिक पर्व के अन्तर्गत अनुगीतापर्व में गुरु शिष्य संवादविषयक इकतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।
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