"महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 19 श्लोक 52-66": अवतरणों में अंतर

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पार्थ! क्या तुमने मरे बाताये हुए इस उपदेश को एकाग्रचित होकर सुना है? उस युद्ध के समय भी तुमने रथ पर बैठे-बैठे इसी तत्त्व को सुना था।
पार्थ! क्या तुमने मरे बाताये हुए इस उपदेश को एकाग्रचित होकर सुना है? उस युद्ध के समय भी तुमने रथ पर बैठे-बैठे इसी तत्त्व को सुना था।
कुन्तीनन्दन! मेरा तो ऐसा विश्वा है कि जिसका चित्त व्यग्र है, जिसे ज्ञान का उपदेश नहीं प्राप्त है, वह मनुष्य इस विषय को सुगमतापूर्वक नहीं समझ सकता। जिसका अन्त:करण शुद्ध है वही इसे जान सकता है।
कुन्तीनन्दन! मेरा तो ऐसा विश्वा है कि जिसका चित्त व्यग्र है, जिसे ज्ञान का उपदेश नहीं प्राप्त है, वह मनुष्य इस विषय को सुगमतापूर्वक नहीं समझ सकता। जिसका अन्त:करण शुद्ध है वही इसे जान सकता है।
भरत श्रेष्ठ! यह मैंने देवताओं का परम गोपनीय रहस्य बताया है। पार्थ! इस जगत में किसी भी मनुष्य ने इस रहस्य का श्रवण नहीं किया है।
भरत श्रेष्ठ! यह मैंने देवताओं का परम गोपनीय रहस्य बताया है। पार्थ! इस जगत् में किसी भी मनुष्य ने इस रहस्य का श्रवण नहीं किया है।
अनघ! तुम्हारे सिवा दूसरा कोई मनुष्य इसे सुनने का अधिकारी भी नहीं है। जिसका चित्त दुविधा में पड़ा हुआ है, वह इस समय इसे अच्छी तरह नहीं समझ सकता।
अनघ! तुम्हारे सिवा दूसरा कोई मनुष्य इसे सुनने का अधिकारी भी नहीं है। जिसका चित्त दुविधा में पड़ा हुआ है, वह इस समय इसे अच्छी तरह नहीं समझ सकता।
कुन्तीकुमार! क्रियावान् पुरषों से देवलोक भरा पड़ा है। देवताओं का यह अभीष्ट नहीं है कि मनुष्य के मर्त्यरूप की निवृत्ति हो।
कुन्तीकुमार! क्रियावान् पुरषों से देवलोक भरा पड़ा है। देवताओं का यह अभीष्ट नहीं है कि मनुष्य के मर्त्यरूप की निवृत्ति हो।

14:03, 30 जून 2017 के समय का अवतरण

एकोनविंश (19) अध्‍याय: आश्वमेधिक पर्व (अनुगीता पर्व)

महाभारत: आश्वमेधिक पर्व: एकोनविंश अध्याय: श्लोक 52-56 का हिन्दी अनुवाद


द्विजश्रेष्ठ! यह सारा रहस्य मैंने तुम्हें बता दिया। अब मैं जाने की अनुमति चाहता हूँ। विप्रवर! तुम भी सुखपूर्वक अपने स्थान को लौट जाओ। श्रीकृष्ण! मेरे इस प्रकार कहने पर वह कठोर व्रत का पालन करने वाला मेरा महातपस्वी शिष्य ब्राह्मण काश्यप इच्छानुसार अपने अभीष्ट स्थान को चला गया। भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं- अर्जुन! मोक्ष धर्म का आश्रय लेने वाले वे सिद्ध महात्मा श्रेष्ठ ब्राह्मण मुझ से यह प्रसंग सुनाकर वहीं अन्तर्धान हो गये। पार्थ! क्या तुमने मरे बाताये हुए इस उपदेश को एकाग्रचित होकर सुना है? उस युद्ध के समय भी तुमने रथ पर बैठे-बैठे इसी तत्त्व को सुना था। कुन्तीनन्दन! मेरा तो ऐसा विश्वा है कि जिसका चित्त व्यग्र है, जिसे ज्ञान का उपदेश नहीं प्राप्त है, वह मनुष्य इस विषय को सुगमतापूर्वक नहीं समझ सकता। जिसका अन्त:करण शुद्ध है वही इसे जान सकता है। भरत श्रेष्ठ! यह मैंने देवताओं का परम गोपनीय रहस्य बताया है। पार्थ! इस जगत् में किसी भी मनुष्य ने इस रहस्य का श्रवण नहीं किया है। अनघ! तुम्हारे सिवा दूसरा कोई मनुष्य इसे सुनने का अधिकारी भी नहीं है। जिसका चित्त दुविधा में पड़ा हुआ है, वह इस समय इसे अच्छी तरह नहीं समझ सकता। कुन्तीकुमार! क्रियावान् पुरषों से देवलोक भरा पड़ा है। देवताओं का यह अभीष्ट नहीं है कि मनुष्य के मर्त्यरूप की निवृत्ति हो। पार्थ! जो सनातन ब्रह्म है, वही जीव की परम गति है। ज्ञानी मनुष्य देह को त्यागकर उस ब्रह्म में ही अमृतत्त्व को प्राप्त होता है और सदा के लिये सुखी हो जाता है। इस आत्मदर्शन रूप धर्म का आश्रय लेकर वैश्य और शूद्र तथा जो पाप योनि के मनुष्य है वे परमगति को प्राप्त हो जाते हैं। पार्थ! फिर जो अपने धर्म में प्रेम रखते और ब्रह्मलोक की प्राप्ति के साधन में लगे रहते हैं, न बहु ब्राह्मण और क्षत्रियों की तो बात ही क्या है? इस प्रकार मैंने तुम्हें मोक्षधर्म का युक्तियुक्त उपदेश किया है। उसके साधन के उपाय भी बतलाये है और सिद्धि, फल, मोक्ष तथा दुङख के स्वरूप का भी निर्णय किया है। भरत श्रेष्ठ! इससे बढ़कर दूसरा कोई सुखदायक धर्म नहीं है। पाण्डुनन्दन! जो काई बुद्धिमान, श्रद्धलु और पराक्रमी मनुष्य लौकिक सुख को सारहीन समझकर उसे त्याग देता है, वह उपर्युक्त इन उपायों के द्वारा बहुत शीघ्र परम गति को प्राप्त कर लेता है। पार्थ! इतना ही कहने योज्य विषय है। इससे बढ़कर कुछ भी नहीं है। जो छ: महीने तक निरन्तर योग का अभ्यास करता है, उसका उयोग अवश्य सिद्ध हो जाता है।

इस प्रकार श्रीमहाभारत आश्वमेधिक पर्व के अन्तर्गत अनुगीता पर्व में उन्नीसवां अध्याय पूरा हुआ।




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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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