"महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 21 श्लोक 1-16": अवतरणों में अंतर
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दस होताओं से सम्पन्न होने वाले यज्ञ का वर्णन तथा मन और वाणी की श्रेष्ठता का प्रतिपादन | दस होताओं से सम्पन्न होने वाले यज्ञ का वर्णन तथा मन और वाणी की श्रेष्ठता का प्रतिपादन | ||
ब्राह्मण कहते हैं- प्रिये! इस विषय में | ब्राह्मण कहते हैं- प्रिये! इस विषय में विद्वान् पुरुष इस प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया करते हैं। दस होता मिलकर जिस प्रकार यज्ञ का अनुष्ठान करते हैं, वह सुनो। | ||
भामिनि! कान, त्वचा, नेत्र, जिह्वा (वाक् और रसना), नासिका, हाथ, पैर, उपस्थ और गुदा- ये दस होता हैं। | भामिनि! कान, त्वचा, नेत्र, जिह्वा (वाक् और रसना), नासिका, हाथ, पैर, उपस्थ और गुदा- ये दस होता हैं। | ||
शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध, वाणी, क्रिया, गति, वीर्य, मूत्र का त्याग और मल त्याग- ये दस विषय ही दस हविष्य है। | शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध, वाणी, क्रिया, गति, वीर्य, मूत्र का त्याग और मल त्याग- ये दस विषय ही दस हविष्य है। | ||
भामिनि! दिशा, वायु, सूर्य, चन्द्रमा, पृथ्वी, अग्रि, विष्णु, इन्द्र, प्रजापति और मित्र- ये दस देवता अग्रि हैं। | भामिनि! दिशा, वायु, सूर्य, चन्द्रमा, पृथ्वी, अग्रि, विष्णु, इन्द्र, प्रजापति और मित्र- ये दस देवता अग्रि हैं। | ||
भाविनि! दस इन्द्रिय रूपी होता दस देवतारूपी अग्रि में दस विषय रूपी हविष्य एवं समिधाओं का हवन करते हैं (इस प्रकार मेरे अन्तर में निरन्तर यज्ञ हो रहा है, फिर मैं अकर्मण्य कैसे हूँ?)। | भाविनि! दस इन्द्रिय रूपी होता दस देवतारूपी अग्रि में दस विषय रूपी हविष्य एवं समिधाओं का हवन करते हैं (इस प्रकार मेरे अन्तर में निरन्तर यज्ञ हो रहा है, फिर मैं अकर्मण्य कैसे हूँ?)। | ||
इस यज्ञ में चित्त ही स्त्रुवा पवित्र एवं उत्तम ज्ञान ही धन हैद्ध यह सम्पूर्ण | इस यज्ञ में चित्त ही स्त्रुवा पवित्र एवं उत्तम ज्ञान ही धन हैद्ध यह सम्पूर्ण जगत् पहले भली भाँति विभक्त थाञ ऐसा सुना गया हैं। | ||
जानने में आने वाला यह सारा | जानने में आने वाला यह सारा जगत् चित्तरूप ही है, वह ज्ञान की अर्थात प्रकाश की अपेक्षा रखता है तथा वीयेजनित शरीर समुदाय में रहने वाला शरीरधारी जीव उसको जानने वाला हैं। | ||
वह शरीर का अभिमानी जीव गार्हपत्य अग्रि है। उससे जो दूसरा पावक प्रकट होता है, वह मन है। मन आहवनीय अग्रि है। उसी में पूर्वोक्त हविष्य की आहुति दी जाती है। | वह शरीर का अभिमानी जीव गार्हपत्य अग्रि है। उससे जो दूसरा पावक प्रकट होता है, वह मन है। मन आहवनीय अग्रि है। उसी में पूर्वोक्त हविष्य की आहुति दी जाती है। | ||
उससे वाचस्पति (वेदवाणी) का प्राकट्य होता है। उसे मन देखता है। मन के अनन्तर रूप का प्रादुर्भाव होता है, जो नील पीत आदि वर्णों से रहित होता है। वह रूप मन की ओर दौड़ता है। | उससे वाचस्पति (वेदवाणी) का प्राकट्य होता है। उसे मन देखता है। मन के अनन्तर रूप का प्रादुर्भाव होता है, जो नील पीत आदि वर्णों से रहित होता है। वह रूप मन की ओर दौड़ता है। | ||
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मन और वाणी दोनों ने जीवात्मा के पास जाकर पूछा- ‘प्रभो! हम दोनों में कौन श्रेष्ठ है? यह बताओ और हमारे संदेह का निवारण करो’। | मन और वाणी दोनों ने जीवात्मा के पास जाकर पूछा- ‘प्रभो! हम दोनों में कौन श्रेष्ठ है? यह बताओ और हमारे संदेह का निवारण करो’। | ||
तब भगवान आत्मदेव ने कहा- ‘मन ही श्रेष्ठ है।’ यह सुनकर सरस्वती बोलीं- ‘मैं ही तुम्हारे लिये कामधेनु बनकर सब कुछ देती हूँ।’ इस प्रकार वाणी ने स्वयं ही अपनी श्रेष्ठता बतायी। | तब भगवान आत्मदेव ने कहा- ‘मन ही श्रेष्ठ है।’ यह सुनकर सरस्वती बोलीं- ‘मैं ही तुम्हारे लिये कामधेनु बनकर सब कुछ देती हूँ।’ इस प्रकार वाणी ने स्वयं ही अपनी श्रेष्ठता बतायी। | ||
ब्राह्मण देवता कहते हैं- प्रिये! स्थावर और जंगम ये दोनों मेरे मन हैं। स्थावर अर्थात् बाह्य इन्द्रियों से गृहित होने वाला जो यह | ब्राह्मण देवता कहते हैं- प्रिये! स्थावर और जंगम ये दोनों मेरे मन हैं। स्थावर अर्थात् बाह्य इन्द्रियों से गृहित होने वाला जो यह जगत् है, वह मेरे समीप है और जंगम अर्थात इन्द्रियातीत जो स्वर्ग आदि है, वह तुम्हारे अधिकार में है। | ||
14:26, 6 जुलाई 2017 के समय का अवतरण
एकविंश (21) अध्याय: आश्वमेधिक पर्व (अनुगीता पर्व)
दस होताओं से सम्पन्न होने वाले यज्ञ का वर्णन तथा मन और वाणी की श्रेष्ठता का प्रतिपादन
ब्राह्मण कहते हैं- प्रिये! इस विषय में विद्वान् पुरुष इस प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया करते हैं। दस होता मिलकर जिस प्रकार यज्ञ का अनुष्ठान करते हैं, वह सुनो। भामिनि! कान, त्वचा, नेत्र, जिह्वा (वाक् और रसना), नासिका, हाथ, पैर, उपस्थ और गुदा- ये दस होता हैं। शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध, वाणी, क्रिया, गति, वीर्य, मूत्र का त्याग और मल त्याग- ये दस विषय ही दस हविष्य है। भामिनि! दिशा, वायु, सूर्य, चन्द्रमा, पृथ्वी, अग्रि, विष्णु, इन्द्र, प्रजापति और मित्र- ये दस देवता अग्रि हैं। भाविनि! दस इन्द्रिय रूपी होता दस देवतारूपी अग्रि में दस विषय रूपी हविष्य एवं समिधाओं का हवन करते हैं (इस प्रकार मेरे अन्तर में निरन्तर यज्ञ हो रहा है, फिर मैं अकर्मण्य कैसे हूँ?)। इस यज्ञ में चित्त ही स्त्रुवा पवित्र एवं उत्तम ज्ञान ही धन हैद्ध यह सम्पूर्ण जगत् पहले भली भाँति विभक्त थाञ ऐसा सुना गया हैं। जानने में आने वाला यह सारा जगत् चित्तरूप ही है, वह ज्ञान की अर्थात प्रकाश की अपेक्षा रखता है तथा वीयेजनित शरीर समुदाय में रहने वाला शरीरधारी जीव उसको जानने वाला हैं। वह शरीर का अभिमानी जीव गार्हपत्य अग्रि है। उससे जो दूसरा पावक प्रकट होता है, वह मन है। मन आहवनीय अग्रि है। उसी में पूर्वोक्त हविष्य की आहुति दी जाती है। उससे वाचस्पति (वेदवाणी) का प्राकट्य होता है। उसे मन देखता है। मन के अनन्तर रूप का प्रादुर्भाव होता है, जो नील पीत आदि वर्णों से रहित होता है। वह रूप मन की ओर दौड़ता है। ब्राह्मणी बोली- प्रियतम! किस कारण से वाक् की उत्पत्ति पहले हुई और क्यों मन पीछे हुआ? जब कि मन से सोचे-विचारे वचन को ही व्यहार में लाया जाता है। किस विज्ञान के प्रभाव से मति चित्त के आश्रित होती है? वह ऊँचे उठायी जाने पर विषयों की ओर क्यों नहीं जाती? कौन उसक मार्ग में बाधा डालता है? ब्राह्मण ने कहा- प्रिये! अपान पति रूप होकर उस मति को अपान भाव की ओर ले जाता है। वह अपान भाव की प्राप्ति मन की गति बतायी गयी है, इसलिये मन उसकी अपेक्षा रखता है। परंतु तुम मुझ से वाणी और मन के विषय में ही प्रश्न करती हो, इसलिये मैं तुम्हें उन्हीं दोनों का संवाद बताऊँगा। मन और वाणी दोनों ने जीवात्मा के पास जाकर पूछा- ‘प्रभो! हम दोनों में कौन श्रेष्ठ है? यह बताओ और हमारे संदेह का निवारण करो’। तब भगवान आत्मदेव ने कहा- ‘मन ही श्रेष्ठ है।’ यह सुनकर सरस्वती बोलीं- ‘मैं ही तुम्हारे लिये कामधेनु बनकर सब कुछ देती हूँ।’ इस प्रकार वाणी ने स्वयं ही अपनी श्रेष्ठता बतायी। ब्राह्मण देवता कहते हैं- प्रिये! स्थावर और जंगम ये दोनों मेरे मन हैं। स्थावर अर्थात् बाह्य इन्द्रियों से गृहित होने वाला जो यह जगत् है, वह मेरे समीप है और जंगम अर्थात इन्द्रियातीत जो स्वर्ग आदि है, वह तुम्हारे अधिकार में है।
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