"महाभारत आश्‍वमेधिक पर्व अध्याय 13 श्लोक 15-22": अवतरणों में अंतर

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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: आश्‍वमेधिक पर्व: त्रयोदशअध्याय: श्लोक 15-22 का हिन्दी अनुवाद </div>
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: आश्‍वमेधिक पर्व: त्रयोदशअध्याय: श्लोक 15-22 का हिन्दी अनुवाद </div>


जो नाना प्रकार की दक्षिणा वाले यज्ञों द्वारा मुझे मारने का यत्न करता है, उसके चित्त में मैं उसी प्रकार उत्पन्न होता हूँ, जैसे उत्तम जंगम योनियों में धर्मात्मा। जो वेद और वेदान्त के स्वाध्याय रूप साधनों के द्वारा मुझे मिटा देने का सदा प्रयास करता है, उसके मन में मैं स्थावर प्राणियों में जीवात्मा की भाँति प्रकट होता हूँ।जो सत्यपराक्रमी पुरुष धैर्य के बल से मुझे नष्ट करने की चेष्टा करता है, उसके मानसिक भावों के साथ मैं इतना घुल-मिल जात हूँ कि वह मुझे पहचान नहीं पाता।जो कठोर व्रत का पालन करने वाला मनुष्य तपस्या के द्वारा मेरे अस्तित्व को मिटा डालने का प्रयास करता है, उसकी तपस्या में ही मैं प्र्रकट हो जाता हूँ।जो विद्वान पुरुष मोक्ष का सहारा लेकर मेरे विनाश का प्रयत्न करता है, उसकी जो मोक्षविषयक आसक्ति है, उसी से वह बँधा हुआ है। यह विचार कर मुझे उस पर हँसी आती है और मैं खुश्ी के मारे नाचने लगता हूँ। एकमात्र मैं ही समस्त प्राणियों के लिये अवध्य एवं सदा रहने वालो हूँ। अत: महाराज! आप भी नाना प्रकार की दक्षिणा वाले यज्ञों द्वारा अपनी उस कामना को धर्म में लगा दीजिये। वहाँ आपकी वह कामना सफल होगी।विधिपूर्वक दक्षिणा देकर आप अश्वमेध का तथा पर्याप्त दक्षिणावाले अन्याय समृद्धशाली यज्ञों का अनुष्ठान कीजिये। अपने मारे गये भाई-बंधुओं को बारंबार याद करके अपने मन में व्यथा नहीं होनी चाहिये। इस समरांगण में जिनका वध हुआ है, उन्हें आप फिर नहीं देख सकते।इसलिये आप पर्याप्त दक्षिणावाले समृद्धशाली महायज्ञों का अनुष्ठान करके इस लोक में उत्तम कीर्ति और परलोक में श्रेष्ठ गति प्राप्त करेंगे।
जो नाना प्रकार की दक्षिणा वाले यज्ञों द्वारा मुझे मारने का यत्न करता है, उसके चित्त में मैं उसी प्रकार उत्पन्न होता हूँ, जैसे उत्तम जंगम योनियों में धर्मात्मा। जो वेद और वेदान्त के स्वाध्याय रूप साधनों के द्वारा मुझे मिटा देने का सदा प्रयास करता है, उसके मन में मैं स्थावर प्राणियों में जीवात्मा की भाँति प्रकट होता हूँ।जो सत्यपराक्रमी पुरुष धैर्य के बल से मुझे नष्ट करने की चेष्टा करता है, उसके मानसिक भावों के साथ मैं इतना घुल-मिल जात हूँ कि वह मुझे पहचान नहीं पाता।जो कठोर व्रत का पालन करने वाला मनुष्य तपस्या के द्वारा मेरे अस्तित्व को मिटा डालने का प्रयास करता है, उसकी तपस्या में ही मैं प्र्रकट हो जाता हूँ।जो विद्वान् पुरुष मोक्ष का सहारा लेकर मेरे विनाश का प्रयत्न करता है, उसकी जो मोक्षविषयक आसक्ति है, उसी से वह बँधा हुआ है। यह विचार कर मुझे उस पर हँसी आती है और मैं खुश्ी के मारे नाचने लगता हूँ। एकमात्र मैं ही समस्त प्राणियों के लिये अवध्य एवं सदा रहने वालो हूँ। अत: महाराज! आप भी नाना प्रकार की दक्षिणा वाले यज्ञों द्वारा अपनी उस कामना को धर्म में लगा दीजिये। वहाँ आपकी वह कामना सफल होगी।विधिपूर्वक दक्षिणा देकर आप अश्वमेध का तथा पर्याप्त दक्षिणावाले अन्याय समृद्धशाली यज्ञों का अनुष्ठान कीजिये। अपने मारे गये भाई-बंधुओं को बारंबार याद करके अपने मन में व्यथा नहीं होनी चाहिये। इस समरांगण में जिनका वध हुआ है, उन्हें आप फिर नहीं देख सकते।इसलिये आप पर्याप्त दक्षिणावाले समृद्धशाली महायज्ञों का अनुष्ठान करके इस लोक में उत्तम कीर्ति और परलोक में श्रेष्ठ गति प्राप्त करेंगे।
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">इस प्रकार आश्वमेध के पर्वाणि पर्व के अन्तर्गत अश्वमेध पर्व में श्रीकृष्ण और धर्मराज युधिष्ठर का संवादविषयक तेरहवाँ अध्याय पूरा हुआ।</div>
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">इस प्रकार आश्वमेध के पर्वाणि पर्व के अन्तर्गत अश्वमेध पर्व में श्रीकृष्ण और धर्मराज युधिष्ठर का संवादविषयक तेरहवाँ अध्याय पूरा हुआ।</div>



14:43, 6 जुलाई 2017 के समय का अवतरण

त्रयोदश (13) अध्याय: आश्‍वमेधिक पर्व (अश्वमेध पर्व)

महाभारत: आश्‍वमेधिक पर्व: त्रयोदशअध्याय: श्लोक 15-22 का हिन्दी अनुवाद

जो नाना प्रकार की दक्षिणा वाले यज्ञों द्वारा मुझे मारने का यत्न करता है, उसके चित्त में मैं उसी प्रकार उत्पन्न होता हूँ, जैसे उत्तम जंगम योनियों में धर्मात्मा। जो वेद और वेदान्त के स्वाध्याय रूप साधनों के द्वारा मुझे मिटा देने का सदा प्रयास करता है, उसके मन में मैं स्थावर प्राणियों में जीवात्मा की भाँति प्रकट होता हूँ।जो सत्यपराक्रमी पुरुष धैर्य के बल से मुझे नष्ट करने की चेष्टा करता है, उसके मानसिक भावों के साथ मैं इतना घुल-मिल जात हूँ कि वह मुझे पहचान नहीं पाता।जो कठोर व्रत का पालन करने वाला मनुष्य तपस्या के द्वारा मेरे अस्तित्व को मिटा डालने का प्रयास करता है, उसकी तपस्या में ही मैं प्र्रकट हो जाता हूँ।जो विद्वान् पुरुष मोक्ष का सहारा लेकर मेरे विनाश का प्रयत्न करता है, उसकी जो मोक्षविषयक आसक्ति है, उसी से वह बँधा हुआ है। यह विचार कर मुझे उस पर हँसी आती है और मैं खुश्ी के मारे नाचने लगता हूँ। एकमात्र मैं ही समस्त प्राणियों के लिये अवध्य एवं सदा रहने वालो हूँ। अत: महाराज! आप भी नाना प्रकार की दक्षिणा वाले यज्ञों द्वारा अपनी उस कामना को धर्म में लगा दीजिये। वहाँ आपकी वह कामना सफल होगी।विधिपूर्वक दक्षिणा देकर आप अश्वमेध का तथा पर्याप्त दक्षिणावाले अन्याय समृद्धशाली यज्ञों का अनुष्ठान कीजिये। अपने मारे गये भाई-बंधुओं को बारंबार याद करके अपने मन में व्यथा नहीं होनी चाहिये। इस समरांगण में जिनका वध हुआ है, उन्हें आप फिर नहीं देख सकते।इसलिये आप पर्याप्त दक्षिणावाले समृद्धशाली महायज्ञों का अनुष्ठान करके इस लोक में उत्तम कीर्ति और परलोक में श्रेष्ठ गति प्राप्त करेंगे।

इस प्रकार आश्वमेध के पर्वाणि पर्व के अन्तर्गत अश्वमेध पर्व में श्रीकृष्ण और धर्मराज युधिष्ठर का संवादविषयक तेरहवाँ अध्याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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