"महाभारत द्रोण पर्व अध्याय 82 श्लोक 21-34": अवतरणों में अंतर

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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: द्रोण पर्व:द्वचषीतितमो अध्याय: श्लोक 21-34 का हिन्दी अनुवाद</div>
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: द्रोण पर्व:द्वचषीतितमो अध्याय: श्लोक 21-34 का हिन्दी अनुवाद</div>


तत्पश्चात् सोने बने हुए स्वस्तिक, सिकोरे, बन्द मुंह- वाले अर्धपात्र, माला जल से भरे हुए कलश, प्रज्वलित अग्रि, अक्षत से हुए पूर्णपात्र, बिजौरा नीबू, गोरोचन, आभूषणों - से विभूषित सुन्दरी कन्याएं,दही,घी,मधु,जल माग्डलिक पक्षी तथा अन्यान्य भी जो प्रशस्त वस्तुए है, उन सबको देखकर और उनमें से कुछ का स्पर्श करके कुन्ती नन्दन युधिष्ठिर बाहरी डयोढी में प्रवेश किया।उस डयोढी में खडे हुए महबाहु युधिष्ठिर के सेवको ने उनके लिये सोने का बना हुआ एक सर्वतोभद्र नामक श्रेष्‍ठ आसन दिया, जिसमें मुक्ता और वैदूर्यमणि जडी हुई थी। उस पर बहुमूल्य बिछोना बिछा हुआ था। उसके उपर सुन्दर चादर बिछायी गयी थी। वह दिव्य एवं समृद्धिशाली सिहांसन साक्षात् विश्वकर्मा का बनाया हुआ था।वहां बैठे हुए महात्मा राजा युधिष्ठिर को उनके सेवकों ने सब प्रकार के उज्जवल एवं बहुमूल्य आभूषण भेंट किये।महाराज। मुक्तामय आभूषणो से विभूषित वेष वाले महात्मा कुन्तीनन्दन का स्वरूप् उस समय शत्रुओं का शोक बढा रहा था।चन्दमा की किरणो के समान श्‍वेत तथा सुवर्णमय दण्ड-वाले सुन्दर शोभाशाली अनेक चॅंवर डुलाये जा रहे थे। उनसे राजा युधिष्ठिर की वैसी ही शोभा हो रही थी, जैसे बिजलियों से मेघ सुशोभित होता है। उस समय सूतगण स्तुति करते थे, बनदी जन वन्दना कर रहे थे और गनधर्वण उनके सुयश के गीत गाते थे। इन सबसे घिरे युधिष्ठिर वहां सिहांसन पर विराजमान थे।तदनन्तर दो ही घडी में रथों को महान् शब्द गूंज उठा। रथियो के पहियों की घडघराहट और घोडो की टापो के शब्द सुनायी देने लगे। हाथियो के घंटो की घनघनाइट, शंको की ध्वनि तथा पैदल चलने वाले मनुष्‍यो के पैरो की धमक से यह पृथ्वी कापती-सी जान पडती थी। इसी समय कानो में कुण्डल पहने, कमर में तलवार बांधे और वृक्षःस्थल पर कवच धारण किये एक तरूण द्वारा पालने उस डयोढी के भीतर प्रवेश करके धरती पर दोनो घुटने टेक दिये और वनदनीय महाराज युधिष्ठिर को मसतक नवाकर प्रणाम किया। इस प्रकार सिर से प्रणाम करके उसने धर्मपुत्र महात्मा युधिष्ठिर को यह सूचना दी कि भगवान् श्रीकृष्ण पधार रहे है।तब पुरुष सिंह युधिष्ठिर ने द्वारपाल से कहा- तुम माधव को स्वागतपूर्वक ले आओ और उन्हे अध्र्य तथा परम उत्तम आसन अर्पित करो। तब द्वारपाल ने भगवान् श्रीकृष्ण को भीतर ले आकर एक श्रेष्ठ आसन पर बैठा दिया। तत्पष्चात बेठा दिया। तत्पष्चात धर्मराज युधिष्ठिर ने स्वयं ही विधिपूर्वक उनका पूजन किया।
तत्पश्चात् सोने बने हुए स्वस्तिक, सिकोरे, बन्द मुंह- वाले अर्धपात्र, माला जल से भरे हुए कलश, प्रज्वलित अग्रि, अक्षत से हुए पूर्णपात्र, बिजौरा नीबू, गोरोचन, आभूषणों - से विभूषित सुन्दरी कन्याएं,दही,घी,मधु,जल माग्डलिक पक्षी तथा अन्यान्य भी जो प्रशस्त वस्तुए है, उन सबको देखकर और उनमें से कुछ का स्पर्श करके कुन्ती नन्दन युधिष्ठिर बाहरी डयोढी में प्रवेश किया।उस डयोढी में खडे हुए महबाहु युधिष्ठिर के सेवको ने उनके लिये सोने का बना हुआ एक सर्वतोभद्र नामक श्रेष्‍ठ आसन दिया, जिसमें मुक्ता और वैदूर्यमणि जडी हुई थी। उस पर बहुमूल्य बिछोना बिछा हुआ था। उसके उपर सुन्दर चादर बिछायी गयी थी। वह दिव्य एवं समृद्धिशाली सिहांसन साक्षात् विश्वकर्मा का बनाया हुआ था।वहां बैठे हुए महात्मा राजा युधिष्ठिर को उनके सेवकों ने सब प्रकार के उज्ज्वल एवं बहुमूल्य आभूषण भेंट किये।महाराज। मुक्तामय आभूषणो से विभूषित वेष वाले महात्मा कुन्तीनन्दन का स्वरूप् उस समय शत्रुओं का शोक बढा रहा था।चन्दमा की किरणो के समान श्‍वेत तथा सुवर्णमय दण्ड-वाले सुन्दर शोभाशाली अनेक चॅंवर डुलाये जा रहे थे। उनसे राजा युधिष्ठिर की वैसी ही शोभा हो रही थी, जैसे बिजलियों से मेघ सुशोभित होता है। उस समय सूतगण स्तुति करते थे, बनदी जन वन्दना कर रहे थे और गनधर्वण उनके सुयश के गीत गाते थे। इन सबसे घिरे युधिष्ठिर वहां सिहांसन पर विराजमान थे।तदनन्तर दो ही घडी में रथों को महान् शब्द गूंज उठा। रथियो के पहियों की घडघराहट और घोडो की टापो के शब्द सुनायी देने लगे। हाथियो के घंटो की घनघनाइट, शंको की ध्वनि तथा पैदल चलने वाले मनुष्‍यो के पैरो की धमक से यह पृथ्वी कापती-सी जान पडती थी। इसी समय कानो में कुण्डल पहने, कमर में तलवार बांधे और वृक्षःस्थल पर कवच धारण किये एक तरूण द्वारा पालने उस डयोढी के भीतर प्रवेश करके धरती पर दोनो घुटने टेक दिये और वनदनीय महाराज युधिष्ठिर को मसतक नवाकर प्रणाम किया। इस प्रकार सिर से प्रणाम करके उसने धर्मपुत्र महात्मा युधिष्ठिर को यह सूचना दी कि भगवान् श्रीकृष्ण पधार रहे है।तब पुरुष सिंह युधिष्ठिर ने द्वारपाल से कहा- तुम माधव को स्वागतपूर्वक ले आओ और उन्हे अध्र्य तथा परम उत्तम आसन अर्पित करो। तब द्वारपाल ने भगवान् श्रीकृष्ण को भीतर ले आकर एक श्रेष्ठ आसन पर बैठा दिया। तत्पष्चात बेठा दिया। तत्पष्चात धर्मराज युधिष्ठिर ने स्वयं ही विधिपूर्वक उनका पूजन किया।





13:55, 29 अक्टूबर 2017 के समय का अवतरण

द्वचषीतितमो (82) अध्याय: द्रोण पर्व ( प्रतिज्ञा पर्व )

महाभारत: द्रोण पर्व:द्वचषीतितमो अध्याय: श्लोक 21-34 का हिन्दी अनुवाद

तत्पश्चात् सोने बने हुए स्वस्तिक, सिकोरे, बन्द मुंह- वाले अर्धपात्र, माला जल से भरे हुए कलश, प्रज्वलित अग्रि, अक्षत से हुए पूर्णपात्र, बिजौरा नीबू, गोरोचन, आभूषणों - से विभूषित सुन्दरी कन्याएं,दही,घी,मधु,जल माग्डलिक पक्षी तथा अन्यान्य भी जो प्रशस्त वस्तुए है, उन सबको देखकर और उनमें से कुछ का स्पर्श करके कुन्ती नन्दन युधिष्ठिर बाहरी डयोढी में प्रवेश किया।उस डयोढी में खडे हुए महबाहु युधिष्ठिर के सेवको ने उनके लिये सोने का बना हुआ एक सर्वतोभद्र नामक श्रेष्‍ठ आसन दिया, जिसमें मुक्ता और वैदूर्यमणि जडी हुई थी। उस पर बहुमूल्य बिछोना बिछा हुआ था। उसके उपर सुन्दर चादर बिछायी गयी थी। वह दिव्य एवं समृद्धिशाली सिहांसन साक्षात् विश्वकर्मा का बनाया हुआ था।वहां बैठे हुए महात्मा राजा युधिष्ठिर को उनके सेवकों ने सब प्रकार के उज्ज्वल एवं बहुमूल्य आभूषण भेंट किये।महाराज। मुक्तामय आभूषणो से विभूषित वेष वाले महात्मा कुन्तीनन्दन का स्वरूप् उस समय शत्रुओं का शोक बढा रहा था।चन्दमा की किरणो के समान श्‍वेत तथा सुवर्णमय दण्ड-वाले सुन्दर शोभाशाली अनेक चॅंवर डुलाये जा रहे थे। उनसे राजा युधिष्ठिर की वैसी ही शोभा हो रही थी, जैसे बिजलियों से मेघ सुशोभित होता है। उस समय सूतगण स्तुति करते थे, बनदी जन वन्दना कर रहे थे और गनधर्वण उनके सुयश के गीत गाते थे। इन सबसे घिरे युधिष्ठिर वहां सिहांसन पर विराजमान थे।तदनन्तर दो ही घडी में रथों को महान् शब्द गूंज उठा। रथियो के पहियों की घडघराहट और घोडो की टापो के शब्द सुनायी देने लगे। हाथियो के घंटो की घनघनाइट, शंको की ध्वनि तथा पैदल चलने वाले मनुष्‍यो के पैरो की धमक से यह पृथ्वी कापती-सी जान पडती थी। इसी समय कानो में कुण्डल पहने, कमर में तलवार बांधे और वृक्षःस्थल पर कवच धारण किये एक तरूण द्वारा पालने उस डयोढी के भीतर प्रवेश करके धरती पर दोनो घुटने टेक दिये और वनदनीय महाराज युधिष्ठिर को मसतक नवाकर प्रणाम किया। इस प्रकार सिर से प्रणाम करके उसने धर्मपुत्र महात्मा युधिष्ठिर को यह सूचना दी कि भगवान् श्रीकृष्ण पधार रहे है।तब पुरुष सिंह युधिष्ठिर ने द्वारपाल से कहा- तुम माधव को स्वागतपूर्वक ले आओ और उन्हे अध्र्य तथा परम उत्तम आसन अर्पित करो। तब द्वारपाल ने भगवान् श्रीकृष्ण को भीतर ले आकर एक श्रेष्ठ आसन पर बैठा दिया। तत्पष्चात बेठा दिया। तत्पष्चात धर्मराज युधिष्ठिर ने स्वयं ही विधिपूर्वक उनका पूजन किया।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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