"महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 69 श्लोक 1-18": अवतरणों में अंतर
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जिसका | जिसका पुत्ररूपी परिवार नष्ट हो गया था, उस उत्तरा को पृथ्वी पर पड़ी देख दु:ख से आतुर हुई कुन्तीदेवी तथा भरतवंश की सारी स्त्रियां फूट-फूटकर रोने लगी। | ||
राजेन्द्र! दो घड़ी तक पाण्डवों का वह भवन आर्तनाद से गूँजता रहा। उस समय उसकी ओर देखते नहीं बनता था। | राजेन्द्र! दो घड़ी तक पाण्डवों का वह भवन आर्तनाद से गूँजता रहा। उस समय उसकी ओर देखते नहीं बनता था। | ||
वीर राजेन्द्र! पुत्रशोक से पीड़ित वह विराटकुमारी उत्तरा उस समय दो घड़ी तक मूर्च्छा में पड़ी रही। | वीर राजेन्द्र! पुत्रशोक से पीड़ित वह विराटकुमारी उत्तरा उस समय दो घड़ी तक मूर्च्छा में पड़ी रही। |
08:21, 4 अप्रैल 2018 के समय का अवतरण
एकोनसप्ततितम (69) अध्याय: आश्वमेधिक पर्व (अनुगीता पर्व)
उत्तरा का विलाप और भगवान श्रीकृष्ण उसके मृत बालक को जीवन-दान देना
वैशम्पायजी कहते हैं- जनमेजय! पुत्र का जीवन चाहने वाली तपस्विनी उत्तरा उन्मादिनी-सी होकर इस प्रकार दीनभाव से करुण विलाप करके पृथ्वी पर गिर पड़ी। जिसका पुत्ररूपी परिवार नष्ट हो गया था, उस उत्तरा को पृथ्वी पर पड़ी देख दु:ख से आतुर हुई कुन्तीदेवी तथा भरतवंश की सारी स्त्रियां फूट-फूटकर रोने लगी। राजेन्द्र! दो घड़ी तक पाण्डवों का वह भवन आर्तनाद से गूँजता रहा। उस समय उसकी ओर देखते नहीं बनता था। वीर राजेन्द्र! पुत्रशोक से पीड़ित वह विराटकुमारी उत्तरा उस समय दो घड़ी तक मूर्च्छा में पड़ी रही। भरतश्रेष्ठ! थोड़ी देर बाद उत्तरा जब होश में आई, तब मरे हुए पुत्र को गोद में लेकर यों कहने लगी- ‘बेटा! तू तो धर्मज्ञ पिता का पुत्र है। फिर तेरे द्वारा जो अधर्म हो रहा है, उसे तू क्यों नही समझता? वृष्णिवंश श्रेष्ठ वीर भगवान श्रीकृष्ण सामने खड़े हैं तो भी इन्हें प्रणाम क्यों नहीं करता? ‘वत्स! परलोक में जाकर तू अपने पिता से मेरी यह बात कहना- ‘वीर! अन्तकाल आये बिना प्राणियों के लिये किसी तरह भी मरना बड़ा कठिन होता है। तभी तो मैं यहाँ आप-जैसे पति तथा इस पुत्र से बिछ¸डकर भी जब कि मुझे मर जाना चाहिए, अब तक जी रही हूँ; मेरा सारा मंगल नष्ट हो गया है। मैं अकिंचन हो गयी हूं’। ‘महाबाहो! अब मैं धर्मराज की आज्ञा लेकर भयानक विष खा लूँगी अथवा प्रज्वलित अग्नि में समा जाऊँगी। ‘तात! जान पड़ता है, मनुष्य के लिये मरना अत्यन्त कठिन है, क्योंकि पति और पुत्र से हीन होने पर भी मेरे इस हृदय के हजारों टुकड़े नहीं हो रहे हैं। ‘बेटा! उठकर खड़ा हो जा। देख! ये तेरी परदादी (कुन्ती) कितनी दुखी है। ये तेरे लिये आर्त, व्यथित एवं दीन होकर शोक के समुद्र में डूब गयी है। ‘आर्या पांचाली (द्रौपदी) की ओर देख, अपनी दादी तपस्विनी सुभद्रा की ओर दृष्टिपात कर और व्याध के बाणों से बिंधी हुई हरिणी की भाँति अत्यन्त दु:ख से आर्त हुई अपनी माँ को भी देख ले। ‘बेटा! उठकर खड़ा हो जा और बुद्धिमान जगदीश्वर श्रीकृष्ण के कमलदल के समान नेत्रोंवाले मुखारविन्द की शोभा निहार, ठीक उसी तरह जैसे पहले मैं चंचल नेत्रों वाले तेरे पिता का मुँह निहारा करती थी’। इस प्रकार विलाप करती हुई उत्तरा को पुन: पृथ्वी पर पड़ी देख सब स्त्रियों ने उसे फिर उठाकर बिठाया। पुन: उठकर धैर्य धारण करके मत्स्यराजकुमारी ने पृथ्वी पर ही हाथ जोड़कर कमलनयन भगवान श्रीकृष्ण को प्रणाम किया। उसका महान् विलाप सुनकर पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण ने आचमन करके अश्वत्थामा के चलाये हुए ब्रह्मास्त्र को शान्त कर दिया। तत्पश्चात् विशुद्ध हृदयवाले और कभी अपनी महिमा से विचलित न होने वाले भगवान श्रीकृष्ण ने उस बालक को जीवित करने की प्रतिज्ञा की और सम्पूर्ण जगत् को सुनाते हुए इस प्रकार कहा- ‘बेटी उत्तरा! मैं झूठ नहीं बोलता। मैंने जो प्रतिज्ञा की है, वह सत्य होकर ही रहेगी। देखो, मैं समस्त देहधारियों के देखते-देखते अभी इस बालक को जिलाये देता हूँ।
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