"महाभारत आदि पर्व अध्याय 2 श्लोक 391-395": अवतरणों में अंतर
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द्वितीय (2) अध्याय: आदि पर्व (पर्वसंग्रह पर्व)
तपस्वी महर्षियों ! (तथा महाभारत के पाठकों) ! आप सब लोग सदा सांसारिक आसक्तियों मे ऊँचे उठें और आपका मन सदा धर्म में लगा रहे, क्योंकि परलोक में गये हुए जीव का बंधु या सहायक एकमात्र धर्म ही है। चतुर मनुष्य भी धन और स्त्रियों का सेवन तो करते हैं, किंतु वे उनकी श्रेष्ठता पर विश्राम नहीं करते हैं और न उन्हें स्थिर ही मानते हैं। जो व्यास जी के मुख से निकले हुए इस अप्रमेय (अतुलनीय) पुण्यदायक, पवित्र, पापहारी और कल्याणमय महाभारत को दूसरों के मुख से सुनता है, उसे पुष्कर तीर्थ के जल में गोता लगाने की क्या आवश्यकता है? ब्राह्मण दिन में अपनी इन्द्रियों द्वारा जो पाप करता है, उससे सांयकाल महाभारत का पाठ करके मुक्त हो जाता है। इसी प्रकार वह मन, वाणी और क्रिया द्वारा रात में जो पाप करता है, उससे प्रातःकाल महाभारत का पाठ करके छूट जाता हैं। जो गौओं के सींग में सोना मढ़ाकर वेदवेत्ता एवं बहुज्ञ ब्रह्मण को प्रतिदिन सौ गायें दान देता है और जो केवल महाभारत कथा का श्रवण मात्र करता है, इन दोनों मे से प्रत्येक को बराबर ही फल मिलता है।
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