"महाभारत आश्रमवासिक पर्व अध्याय 3 श्लोक 72-87": अवतरणों में अंतर
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तृतीय (3) अध्याय: आश्रमवासिक पर्व (आश्रमवास पर्व)
तात ! तुमसे अनुरोध करने के लिये बोलते समय मुझे बड़ा भारी परिश्रम करना पड़ा है । अतः क्षीणशक्ति होकर मैं अचेत सा हो गया था । प्रभो! तुम्हारें हाथों का यह स्पर्श अमृत रस के समान शीतल एवं सुखद है । कुरूकुलनाथ ! इसे पाकर मुझमें नया जीवन आ गया है, मैं ऐसा मानता हूँ। वैशम्पायनजी कहते हैं - भारत ! अपने ज्येष्ठ पितृव्य धृतराष्ट्र के ऐसा कहने पर कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर ने बड़े स्नेह के साथ उनके समस्त अंगों पर धीरे धीरे हाथ फेरा। उनके स्पर्श से राजा धृतराष्ट्र के शरीर में मानो नूतन प्राण आ गये और उन्होंने अपनी दोनों भुजाओं से युधिष्ठिर को छाती से लगाकर उनका मस्तक सूँघा। यह करूण दृश्य देखकर विदुर आदि सब लोग अत्यन्त दुःखी हो रोने लगे । अधिक दुःख के कारण वे लोग पाण्डुपुत्र राजा युधिष्ठिर से कुछ न बोले। धर्म को जानने वाली गान्धारी अपने मन में दुःख का बड़ा भारी बोझ ढ़ो रही थी । उसने दुःखों को मन में ही दबा लिया और रोते लोगों से कहा - ‘ऐसा न करो’। कुन्ती के साथ कुरूकुल की अन्य स्त्रियाँ भी अत्यन्त दुःखी हो नेत्रों से आँसू बहाती हुई उन्हें घेरकर खड़ी हो गयीं। तदनन्तर धृतराष्ट्र ने पुनः युधिष्ठिर से कहा - ‘राजन ! भरतश्रेष्ठ ! मुझे तपस्या के लिये अनुमति दे दो। ‘तात ! बार-बार बोलने से मेरा जी घबराता है, अतः बेटा ! अब मुझे अधिक कष्ट में न डालो’। कौरवराज धृतराष्ट्र जब पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर से ऐसी बात कह रहे थे, उस समय वहाँ उपस्थित हुए समस्त योद्धा महान् आर्तनाद (हाहाकार) करने लगे। अपने ताऊ महाप्रभु राजा धृतराष्ट्र को इस प्रकार उपवास करने के कारण थके हुए, दुर्बल, कान्तिहीन, अस्थिचर्मावशिष्ट और अयोग्य अवस्था में स्थित देख धर्मपुत्र युधिष्ठिर क्षोभजनित आँसू बहाते हुए उनसे इस प्रकार बोले -‘नरश्रेष्ठ ! मैं न तो जीवन चाहता हूँ न पृथ्वी का राज्य । परंतप नरेश ! जिस तरह भी आपका प्रिय हो, वही मैं करना चाहता हूँ। ‘यदि आप मुझे अपनी कृपा का पात्र समझते हों और यदि मैं आपका प्रिय होऊँ तो मेरी प्रार्थना से इस समय भोजन कीजिये । इसके बाद मैं आगे की बात सोचूँगा। तब महातेजस्वी धृतराष्ट्र ने युधिष्ठिर से कहा - ‘बेटा ! तुम मुझे वन में जाने की अनुमति दे दो तो मैं भोजन करूँ; यही मेरी इच्छा है’। महाराज धृतराष्ट्र युधिष्ठिर से ये बातें की ही रहे थे कि सत्यवतीनन्दन महर्षि व्यास जी वहाँ आ पहुँचे और इस प्रकार कहने लगे।
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