"महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 58 श्लोक 55-61": अवतरणों में अंतर
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अष्टपञ्चाशत्तम (58) अध्याय: आश्वमेधिक पर्व (अनुगीता पर्व)
अन्त में सभी नाग बूढ़े और बालकों को आगे करके हाथ जोड़, मस्तक झुका प्रणाम करके बोले- ‘भगवन्! हम पर प्रसन्न हो जाइये’। इस प्रकार ब्राह्मण देवता को प्रसन्न करके नागों ने उन्हें पाद्य और अर्घ्य निवेदन किया और वे दोनों परम पूजित दिव्य कुण्डल भी वापस कर दिये। तदन्तर नागों से सम्मानित होकर प्रतापी उत्तंक मुनि अग्निदेव की प्रदक्षिणा कर के गुरु के आश्रम की ओर चल दिये। निष्पाप नरेश! वहाँ गौतम के घर में शीघ्रतापूर्वक पहुँचकर उन्होंने गुरुपत्नी को वे दोनों दिव्य कुण्डल दे दिये। जनमेज! वासुकि आदि नागों के यहाँ जो घटना घटी थी, उसका सारा समाचार द्विजश्रेष्ठ उत्तंक ने अपने गुरु महर्षि गौतम से ठीक-ठाक कह सुनाया। जनमेजय! इस प्रकार महात्मा उत्तंक ने तीनों लोकों में घूमकर वे मणिमय दिव्य कुण्डल प्राप्त किये थे। भरतश्रेष्ठ! उत्तंक मुनि, जिनके विषय में तुम मुझसे पूछ रहे थे, ऐसे ही प्रभावशाली और महान् तपस्वी थे।
इस प्रकार श्रीमहाभारत आश्वमेधिकपर्व के अन्तर्गत अनुगीतापर्व में उत्तंक का उपाख्यान विषयक अठ्ठावनाँ अध्याय पूरा हुआ।
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