"महाभारत वन पर्व अध्याय 3 श्लोक 1-28": अवतरणों में अंतर
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'''वैशम्पायनजी कहते हैं'''-[[जनमेजय]] ! [[शौनक]] के ऐसा कहने पर [[कुन्ती]] नन्दन [[युधिष्ठिर]] अपने पुरोहित के पास आकर भाइयों के बीच में इस प्रकार बोले-- विप्रवर ! ये वेदों के पारंगत विद्वान् ब्राह्मण मेरे साथ वन में चल रह हैं। परंतु मैं इनका पालन-पोषण करने में असमर्थ हूँ, यह सोचकर मुझे बड़ा दु:ख हो रहा है। भगवन ! मैं इनका त्याग नहीं कर सकता परंतु इस समय मुझमें अन्न देने की शक्ति नहीं है ऐसी अवस्था में क्या करना चाहिए यह कृपा करके बताइये। '''वैशम्पायनजी कहते हैं'''- जनमेजय ! धर्मात्माओं में श्रेष्ठ धौम्यमुनि ने युधिष्ठिर का प्रश्न सुनकर दो घड़ी तक ध्यान-सा लगाया और धर्मपूर्वक उस उपाय का अन्वेषण करने के पश्चात् उनसे इस प्रकार कहा। | '''वैशम्पायनजी कहते हैं'''-[[जनमेजय]] ! [[शौनक]] के ऐसा कहने पर [[कुन्ती]] नन्दन [[युधिष्ठिर]] अपने पुरोहित के पास आकर भाइयों के बीच में इस प्रकार बोले-- विप्रवर ! ये वेदों के पारंगत विद्वान् ब्राह्मण मेरे साथ वन में चल रह हैं। परंतु मैं इनका पालन-पोषण करने में असमर्थ हूँ, यह सोचकर मुझे बड़ा दु:ख हो रहा है। भगवन ! मैं इनका त्याग नहीं कर सकता परंतु इस समय मुझमें अन्न देने की शक्ति नहीं है ऐसी अवस्था में क्या करना चाहिए यह कृपा करके बताइये। '''वैशम्पायनजी कहते हैं'''- जनमेजय ! धर्मात्माओं में श्रेष्ठ धौम्यमुनि ने युधिष्ठिर का प्रश्न सुनकर दो घड़ी तक ध्यान-सा लगाया और धर्मपूर्वक उस उपाय का अन्वेषण करने के पश्चात् उनसे इस प्रकार कहा। | ||
'''धौम्य बोले'''-- राजन ! सृष्टि के प्रारम्भकाल में जब प्राणी भूख से अत्यन्त व्याकुल हो रहे थे, तब भगवान सूर्य ने पिता की भाँति उन सब पर दया करके उत्तरायण में जाकर अपनी किरणों से पृथ्वी का रस ( जल ) खींचा और दक्षिणायण में लौटकर पृथ्वी को उस रस से प्रविष्ट किया। इस प्रकार सारे भूमण्डल में क्षेत्र तैयार हो गया तब औषधीय स्वामी चन्द्रमा ने अन्तरिक्ष मेघों के रूप में परिणत हुए सूर्य के तेज को प्रकट करके उसके द्वारा बरसाये हुए जल से अन्न आदि औषधियों को उत्पन्न किया। चन्द्रमा की किरणों से अभिशक्त हुआ सूर्य जब अपनी प्रकृति में स्थित हो जाता है तब | '''धौम्य बोले'''-- राजन ! सृष्टि के प्रारम्भकाल में जब प्राणी भूख से अत्यन्त व्याकुल हो रहे थे, तब भगवान सूर्य ने पिता की भाँति उन सब पर दया करके उत्तरायण में जाकर अपनी किरणों से पृथ्वी का रस ( जल ) खींचा और दक्षिणायण में लौटकर पृथ्वी को उस रस से प्रविष्ट किया। इस प्रकार सारे भूमण्डल में क्षेत्र तैयार हो गया तब औषधीय स्वामी चन्द्रमा ने अन्तरिक्ष मेघों के रूप में परिणत हुए सूर्य के तेज को प्रकट करके उसके द्वारा बरसाये हुए जल से अन्न आदि औषधियों को उत्पन्न किया। चन्द्रमा की किरणों से अभिशक्त हुआ सूर्य जब अपनी प्रकृति में स्थित हो जाता है तब छह प्रकार के रसों से युक्त जो पवित्र औषधियां उत्पन्न होती हैं, वही पृथ्वी में प्राणियों के लिये अन्न होता है। इस प्रकार सभी जीवों के प्राणों की रक्षा करने वाला अन्न सूर्य रूप ही है। अतः भगवान सूर्य ही समस्त प्राणियों के पिता हैं, इसलिये तुम उन्हीं की शरण में जाओ। जो जन्म और कर्म दोनों ही दृष्टियों से परम उज्ज्वल हैं ऐसे महात्मा राजा भारी तपस्या का आश्रय लेकर सम्पूर्ण प्रजाजनों का संकट से उद्धार करते हैं। भीम, कार्तवीर्य, अर्जुन, वेनपुत्र पृथु तथा नहुष आदि नरेशों के तपस्या योग और समाधि में स्थित होकर भारी आपत्तियों से प्रजा को उबारा है। धर्मात्मा भारत ! इसी प्रकार तुम भी सत्कर्म से शुद्ध होकर तपस्या का आश्रय ले, धर्मानुसार द्विजातियों का भरण-पोषण करो। | ||
'''जनमेजय ने पूछा''' - भगवन ! पुरुषश्रेष्ठ राजा युधिष्ठिर ने ब्राह्मणों के भरण- पोषण के लिए जिनका दर्शन अत्यन्त अद्भुत है, उन भगवान सूर्य की अराधना किस प्रकार की । | '''जनमेजय ने पूछा''' - भगवन ! पुरुषश्रेष्ठ राजा युधिष्ठिर ने ब्राह्मणों के भरण- पोषण के लिए जिनका दर्शन अत्यन्त अद्भुत है, उन भगवान सूर्य की अराधना किस प्रकार की । |
11:34, 9 फ़रवरी 2021 के समय का अवतरण
तृतीय (3) अध्याय: वन पर्व (अरण्यपर्व)
युधिष्ठिर के द्वारा अन्न के लिए भगवान सर्य की उपासना और उनसे अक्षपात्र की प्राप्ति
वैशम्पायनजी कहते हैं-जनमेजय ! शौनक के ऐसा कहने पर कुन्ती नन्दन युधिष्ठिर अपने पुरोहित के पास आकर भाइयों के बीच में इस प्रकार बोले-- विप्रवर ! ये वेदों के पारंगत विद्वान् ब्राह्मण मेरे साथ वन में चल रह हैं। परंतु मैं इनका पालन-पोषण करने में असमर्थ हूँ, यह सोचकर मुझे बड़ा दु:ख हो रहा है। भगवन ! मैं इनका त्याग नहीं कर सकता परंतु इस समय मुझमें अन्न देने की शक्ति नहीं है ऐसी अवस्था में क्या करना चाहिए यह कृपा करके बताइये। वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय ! धर्मात्माओं में श्रेष्ठ धौम्यमुनि ने युधिष्ठिर का प्रश्न सुनकर दो घड़ी तक ध्यान-सा लगाया और धर्मपूर्वक उस उपाय का अन्वेषण करने के पश्चात् उनसे इस प्रकार कहा। धौम्य बोले-- राजन ! सृष्टि के प्रारम्भकाल में जब प्राणी भूख से अत्यन्त व्याकुल हो रहे थे, तब भगवान सूर्य ने पिता की भाँति उन सब पर दया करके उत्तरायण में जाकर अपनी किरणों से पृथ्वी का रस ( जल ) खींचा और दक्षिणायण में लौटकर पृथ्वी को उस रस से प्रविष्ट किया। इस प्रकार सारे भूमण्डल में क्षेत्र तैयार हो गया तब औषधीय स्वामी चन्द्रमा ने अन्तरिक्ष मेघों के रूप में परिणत हुए सूर्य के तेज को प्रकट करके उसके द्वारा बरसाये हुए जल से अन्न आदि औषधियों को उत्पन्न किया। चन्द्रमा की किरणों से अभिशक्त हुआ सूर्य जब अपनी प्रकृति में स्थित हो जाता है तब छह प्रकार के रसों से युक्त जो पवित्र औषधियां उत्पन्न होती हैं, वही पृथ्वी में प्राणियों के लिये अन्न होता है। इस प्रकार सभी जीवों के प्राणों की रक्षा करने वाला अन्न सूर्य रूप ही है। अतः भगवान सूर्य ही समस्त प्राणियों के पिता हैं, इसलिये तुम उन्हीं की शरण में जाओ। जो जन्म और कर्म दोनों ही दृष्टियों से परम उज्ज्वल हैं ऐसे महात्मा राजा भारी तपस्या का आश्रय लेकर सम्पूर्ण प्रजाजनों का संकट से उद्धार करते हैं। भीम, कार्तवीर्य, अर्जुन, वेनपुत्र पृथु तथा नहुष आदि नरेशों के तपस्या योग और समाधि में स्थित होकर भारी आपत्तियों से प्रजा को उबारा है। धर्मात्मा भारत ! इसी प्रकार तुम भी सत्कर्म से शुद्ध होकर तपस्या का आश्रय ले, धर्मानुसार द्विजातियों का भरण-पोषण करो।
जनमेजय ने पूछा - भगवन ! पुरुषश्रेष्ठ राजा युधिष्ठिर ने ब्राह्मणों के भरण- पोषण के लिए जिनका दर्शन अत्यन्त अद्भुत है, उन भगवान सूर्य की अराधना किस प्रकार की ।
वैशम्पायनजी कहते हैं- राजेन्द्र ! मैं सब बातें बता रहा हूँ। तुम सावधान, पवित्र और एकाग्रचित होकर सुनो और धैर्य रखो। महात्मा ! धौम्य ने जिस प्रकार महात्मा युधिष्ठिर को पहले भगवान सूर्य के एक सौ आठ नाम बताये थे इनका वर्णन करता हूँ सुनो।
धौम्य बाले-- 1. सुर्य, 2. अर्यमा, 3. भग, 4. त्वष्टा, 5. पूषा, 6. अर्क, 7. सविता, 8. रवि, 9. गमस्मिान्, 10. अज, 11. काल, 12. मृत्यु, 13. धाता, 14. प्रभाकर, 15. पृथ्वी, 16. आप, 17. तेज, 18. ख (आकाश) , 19. वायु, 20. परायण, 21. सोम, 22. बृहस्पति, 23. शुक्र, 24. बुध, 25. अंगारक(मंगल) , 26. इन्द्र, 27. विवस्वान, 28. दीप्तांशुं, 29. शुचि, 30. शौरि, 31. शनैश्वर, 32. ब्रह्म, 33. विष्णु, 34. रूद्र, 35. स्कन्द, 36. वरूण, 37. यम, 38. वैद्युताग्रि, 39. जाठराग्नि, 40. ऐन्धनाग्नि, 41. तेजःपति, 42. धर्मध्वज, 43. वेदकर्ता, 44. वेदांग, 45. वेदवाहन, 46. कृत, 47. त्रेता, 48. द्वापर, 49. सर्वमलाश्रय कलि, 50. कला काष्ठा मुहर्त-रूप समय, 51. क्षपा (रात्रि) , 52. याम, 53. क्षण, 54. संवत्सरकर, 55. अश्वत्थ, 56. कालचक्र प्रवर्तक विभावसु, 57. शाश्वत पुरुष, 58. योगी, 59. व्यक्ताव्यक्त, 60. सनातन, 61. कालाध्यक्ष, 62. प्रजाध्यक्ष, 63. विश्वकर्मा, , 64. तमानुद, 65. वरूण, 66. सागर, 67. अंशु, 68. जीमूत, 69. जीवन, 70. अरिहा, 71. भूताश्रय, 72. भूतपति, 73. सर्वलोकनमज्ञकत, 74. स्त्रष्टा, 75. संवर्तक, 76. वह्रि, 77. सर्वादि, 78. अलोल्लन, 79. अनन्त, 80. कपिल, 81. भानु, 82. कामद, 83. सर्वतोमुख, 84. जय, 85. विशाल, 86. वरद, 87. सर्वधातु, 88. मनःसुपर्ण, 89. भूतादि, 90. शीघ्रग, 91. प्राणधारक, 92. धन्वतरि, 93. धूमकेतु, 94. आादिदेव, 95. आदितिसेतु, 96. द्वादशात्मा, 97. अरविन्दाक्ष, 98. पिता-माता-पितामह, 99. स्वर्गद्वार-प्रजाद्वार, 100. मोक्षद्वार, 101. देहकर्ता, 102. प्रशान्तात्मा, 103. विश्वात्मा, 104. विश्वतोमुख, 105. चराचरात्मा, 106. सूक्ष्मात्मा, 107. मैत्रेय, 108. करूणान्वित।ये अमिततेजस्वी भगवान सूर्य के कीर्तन करने योग्य एक सौ आठ नाम हैं जिनका उपदेश साक्षात् ब्रह्मजी ने दिया है।
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