"महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 27 श्लोक 20-33": अवतरणों में अंतर
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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: शान्ति पर्व: सप्तविंश अध्याय: श्लोक 20-33 का हिन्दी अनुवाद</div> | <div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: शान्ति पर्व: सप्तविंश अध्याय: श्लोक 20-33 का हिन्दी अनुवाद</div> | ||
मैंने राज्य के लोभ में पड़कर जब पर्वतों पर उत्पन्न् हुए सिंह के समान पराक्रमी अभिमन्यु को द्रोणाचार्य द्वारा सुरक्षित कौरव सेना में झोंक दिया, तभी से भू्रण-हत्या करने वाले पापी के समान में अर्जुन तथा कमल नयन श्रीकृष्ण की ओर आँख उठाकर देख नहीं पाता हूँ। जैसे पृथ्वी पाँच पर्वतों से हीन हो जाय, उसी प्रकार अपने पाँचों पुत्रों से हीन होकर दुःख आतुर हुई द्रोपदी के लिये भी मुझे निरन्तर शोक बना रहता है। अतः मैं पापी, अपराधी तथा सम्पूर्ण भूमण्डलि का विनाश करने वाला हूँ; इसलिये यहीं इसी रूप में बैठा हुआ अपने इस शरीर को सुखा डालूँगा। आप लोग मुझ गुरूघाती को आमरण अनशन के लिये बैठा हुआ समझें, जिससे दूसरे जन्मों मैं फिर अपने कुल का विनाश करने वाला न होऊँ। तपोधनो! अब मैं किसी तरह न तो अन्न् खाऊँगा और न पानी ही पीऊँगा। यहीं रहकर अपने प्यारे प्राणों को सुखा दूँगा।। मैं आप लोगों को प्रसन्न् करके आनी ओर से चले जाने की अनुमति देता हूँ। जिसकी जहाँ हो वहाँ अपनी | मैंने राज्य के लोभ में पड़कर जब पर्वतों पर उत्पन्न् हुए सिंह के समान पराक्रमी अभिमन्यु को द्रोणाचार्य द्वारा सुरक्षित कौरव सेना में झोंक दिया, तभी से भू्रण-हत्या करने वाले पापी के समान में अर्जुन तथा कमल नयन श्रीकृष्ण की ओर आँख उठाकर देख नहीं पाता हूँ। जैसे पृथ्वी पाँच पर्वतों से हीन हो जाय, उसी प्रकार अपने पाँचों पुत्रों से हीन होकर दुःख आतुर हुई द्रोपदी के लिये भी मुझे निरन्तर शोक बना रहता है। अतः मैं पापी, अपराधी तथा सम्पूर्ण भूमण्डलि का विनाश करने वाला हूँ; इसलिये यहीं इसी रूप में बैठा हुआ अपने इस शरीर को सुखा डालूँगा। आप लोग मुझ गुरूघाती को आमरण अनशन के लिये बैठा हुआ समझें, जिससे दूसरे जन्मों मैं फिर अपने कुल का विनाश करने वाला न होऊँ। तपोधनो! अब मैं किसी तरह न तो अन्न् खाऊँगा और न पानी ही पीऊँगा। यहीं रहकर अपने प्यारे प्राणों को सुखा दूँगा।। मैं आप लोगों को प्रसन्न् करके आनी ओर से चले जाने की अनुमति देता हूँ। जिसकी जहाँ हो वहाँ अपनी रुचि के अनुसार चला जाय। आप सब लोग मुझे आज्ञा दें कि मैं इस शरीर को अनशन करके त्याग दूँ। | ||
वैशाम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय। अपने बन्धु जनों के शोक से विडल होकर युधिष्ठिर को ऐसी बातें करते देख मुनिवर व्यास जी ने उन्हें रोककर कहा- ’नहीं’ ऐसा नहीं हो सकता,। | वैशाम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय। अपने बन्धु जनों के शोक से विडल होकर युधिष्ठिर को ऐसी बातें करते देख मुनिवर व्यास जी ने उन्हें रोककर कहा- ’नहीं’ ऐसा नहीं हो सकता,। |
07:49, 3 जनवरी 2016 के समय का अवतरण
सप्तविंश (27) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
मैंने राज्य के लोभ में पड़कर जब पर्वतों पर उत्पन्न् हुए सिंह के समान पराक्रमी अभिमन्यु को द्रोणाचार्य द्वारा सुरक्षित कौरव सेना में झोंक दिया, तभी से भू्रण-हत्या करने वाले पापी के समान में अर्जुन तथा कमल नयन श्रीकृष्ण की ओर आँख उठाकर देख नहीं पाता हूँ। जैसे पृथ्वी पाँच पर्वतों से हीन हो जाय, उसी प्रकार अपने पाँचों पुत्रों से हीन होकर दुःख आतुर हुई द्रोपदी के लिये भी मुझे निरन्तर शोक बना रहता है। अतः मैं पापी, अपराधी तथा सम्पूर्ण भूमण्डलि का विनाश करने वाला हूँ; इसलिये यहीं इसी रूप में बैठा हुआ अपने इस शरीर को सुखा डालूँगा। आप लोग मुझ गुरूघाती को आमरण अनशन के लिये बैठा हुआ समझें, जिससे दूसरे जन्मों मैं फिर अपने कुल का विनाश करने वाला न होऊँ। तपोधनो! अब मैं किसी तरह न तो अन्न् खाऊँगा और न पानी ही पीऊँगा। यहीं रहकर अपने प्यारे प्राणों को सुखा दूँगा।। मैं आप लोगों को प्रसन्न् करके आनी ओर से चले जाने की अनुमति देता हूँ। जिसकी जहाँ हो वहाँ अपनी रुचि के अनुसार चला जाय। आप सब लोग मुझे आज्ञा दें कि मैं इस शरीर को अनशन करके त्याग दूँ।
वैशाम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय। अपने बन्धु जनों के शोक से विडल होकर युधिष्ठिर को ऐसी बातें करते देख मुनिवर व्यास जी ने उन्हें रोककर कहा- ’नहीं’ ऐसा नहीं हो सकता,।
व्यास जी ने बोले- महाराज! तुम बहुत शोक न करो। प्रभो! मैं पहले की कही हुई बात ही फिर दुहरा रहा हूँ । यह सब प्रारब्धका ही खेल है। जैसे पानी में बुलबुले होते और मिट जाते हैं, उसी प्रकार संसार में उत्पन्न् हुए प्राणियों के जो आपस में संयाग होते हैं, उनका अन्त निश्चय ही वियोग में होता है। सम्पूर्ण संग्रहों का अन्त विनाश है, सारी उन्नतियों का अन्त पतन है, संयोग का अन्त वियोग है और जीवन का अन्त मरण है। आलस्य सुखरूप प्रतीत होता है, परंतु उसका अन्त दुःख है तथा कार्यदक्षता दुःखरूप प्रतीत होती है, परंतु उससे सुख का उदय होता है। इसके सिवा ऐश्वर्य, लक्ष्मी, लज्जा, घृति और कीर्ति - ये कार्यदक्ष पुरुष में ही निवास करती हैं, आलसी में नहीं। न तो सुदृढ़ सुख देने में समर्थ हैं, न शत्रु दुःख देने में। इसी प्रकार न तो प्रजा धन दे सकती है और न धन सुख दे सकता है। कुन्ती नन्दन! नरेश्वर! विधाता ने जैसे कर्मां के लिये तुम्हारी सृष्टि की है, तुम उन्हीं का अनुष्ठान करो। उन्हीं से तुम्हें सिद्धि प्राप्त होगी। तम कर्मों के (फल के) स्वामी या नियन्ता नहीं हो।
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