"महाभारत आदि पर्व अध्याय 37 श्लोक 19-34": अवतरणों में अंतर
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सप्तत्रिंश (37) अध्याय: आदि पर्व (आस्तीक पर्व)
यह सुनकर दूसरे धर्मात्मा और दयालु नागों ने कहा—‘ऐसा सोचना तुम्हारी मूर्खता है। ब्रह्म हत्या कभी शुभकारक नहीं हो सकती। ‘आपत्तिकाल में शान्ति के लिये वही उपाय उत्तम माना गया है, जो भली भाँति श्रेष्ठ धर्म के अनुकूल किया गया हो। संकट से बचने के लिये उत्तरोत्तर अधर्म करने की प्रवृत्ति तो सम्पूर्ण जगत् का नाश कर डालेगी’। इस पर दूसरे नाग बोल उठे—‘जिस समय सर्पयज्ञ के लिये अग्नि प्रज्वलित होगी, उस समय हम बिजलियों सहित मेघ बनकर पानी की वर्षा द्वारा उसे बुझा देंगे। ‘दूसरे श्रेष्ठ नाग रात में वहाँ जाकर असावधानी से सोये हुए ऋवाजों के स्त्रुक्, स्त्रुवा और यज्ञपात्र आदि शीघ्र चुरा लावें। इस प्रकार उसमे विघ्न पड़ जायगा। ‘अथवा उस यज्ञ में सभी सर्प जाकर सैकड़ों और हजारों मनुष्यों को डँस ले; ऐसा करने से हमारे लिये भय नहीं रहेगा। ‘अथवा सर्पगण उस यज्ञ के संस्कार युक्त भोज्य पदार्थ को अपने मल-मूत्रों द्वारा, जो सब प्रकार की भोजन-सामग्री का विनाश करने वाले हैं, दूषित कर दें’। इसके बाद अन्य सर्पों ने कहा—‘हम उस यज्ञ में ऋत्विज हो जायँगे और यह कहकर कि‘हमें मुँहमाँगी दक्षिणा दो, यज्ञ में विघ्न खड़ा कर देंगे। उस समय राजा हमारे वश में पड़कर जैसी हमारी इच्छा होगी, वैसा करेंगे’। फिर अन्य नाग बोले—‘जब राजा जनमेजय जल क्रीड़ा करते हों, उस समय उन्हें वहाँ से खींचकर हम अपने घर ले आवें और बाँधकर रख लें। ऐसा करने से वह यज्ञ होगा ही नही’—इस पर अपने को पण्डित मानने वाले दूसरे नाग बोल उठे ‘हम जनमेजय को पकड़कर डँस लेंगे।’ ऐसा करने से तुरंत ही सब काम बन जायगा। उस राजा के मरने पर हमारे लिये अनर्थों की जड़ ही कट जायगी।‘नेत्रों से सुनने वाले नागराज ! हम सब लोगों की बुद्धि तो इसी निश्चय पर पहुँची है। अब आप जैसा ठीक समझते हों वैसा शीघ्र करें’। यह कहकर वे सर्प नागराज वासुकि की ओर देखने लगे। तब वासुकि ने भी खूब सोच-विचार कर उन सर्पों से कहा—‘नागगण ! तुम्हारी बुद्धि ने जो निश्चय किया है, वह व्यवहार में लाने योग्य नहीं है। इसी प्रकार मेरा विचार भी सब सर्पों को जँच जाय, यह सम्भव नहीं है। ‘ऐसी दशा में क्या करना चाहिये, जो तुम्हारे लिये हितकर हो। मुझे तो महात्मा कश्यप जी को प्रसन्न करने में ही अपनी कल्याण जान पड़ता है। ‘भुजंगमो ! अपने जाति-भाइयों के और अपने हित को दृष्टि में रखकर तुम्हारे कथनानुसार कोई भी कार्य करना मेरी समझ में नहीं आया। ‘मुझे वही काम करना है, जिसमें तुम लोगों का वास्तविक हित हो। इसीलिये मैं अधिक चिन्तित हूँ; क्योंकि तुम सबमें बड़ा होने के कारण गुण और दोष का सारा उत्तरदायित्व मुझ पर ही है’।
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