"महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 13 श्लोक 1-14": अवतरणों में अंतर
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श्रीकृष्ण द्वारा ममता के त्याग का महत्त्व, काम-गीता का उल्लेख और युधिष्ठिर को यज्ञ के लिये प्रेरणा करना | श्रीकृष्ण द्वारा ममता के त्याग का महत्त्व, काम-गीता का उल्लेख और युधिष्ठिर को यज्ञ के लिये प्रेरणा करना | ||
भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं- भारत! केवल राज्य आदि बाह्य पदार्थों का त्या करने से ही सिद्धि नहीं प्राप्त होती। शरीरिक द्रव्य का त्याग करके भी सिद्ध प्राप्त होती है अथवा नहीं भी होती है।बाह्य पदार्थों से अलग होकर भी जो शारीरिक सुख-विलास में आसक्त है, उसे जिस धर्म और सुख की प्राप्ति होती है, वह तुम्हारे साथ द्वेष करने वालों को ही प्राप्त हो।‘मम’ (मेरा) ये दो अक्षर ही मृत्युरूप है और ‘न मम’ (मेरा नहीं है) यह तीन अक्षरों का पद सनातन ब्रह्म की प्राप्ति का कारण है। ममता मृत्यु है और उसका त्याग सनातन अमृत्व है।राजन! इस प्रकार मृत्यु और अमृत दोनों अपने भीतर ही स्थित हैं। ये दोनों अदृश्य रहकर प्राणियों को लड़ाते हैं अर्थात किसी को अपना मानना और किसी को अपना न मानना यह भाव ही यद्ध का कारण है, इसमें संशय नहीं है।भरतनन्दन! यदि इस | भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं- भारत! केवल राज्य आदि बाह्य पदार्थों का त्या करने से ही सिद्धि नहीं प्राप्त होती। शरीरिक द्रव्य का त्याग करके भी सिद्ध प्राप्त होती है अथवा नहीं भी होती है।बाह्य पदार्थों से अलग होकर भी जो शारीरिक सुख-विलास में आसक्त है, उसे जिस धर्म और सुख की प्राप्ति होती है, वह तुम्हारे साथ द्वेष करने वालों को ही प्राप्त हो।‘मम’ (मेरा) ये दो अक्षर ही मृत्युरूप है और ‘न मम’ (मेरा नहीं है) यह तीन अक्षरों का पद सनातन ब्रह्म की प्राप्ति का कारण है। ममता मृत्यु है और उसका त्याग सनातन अमृत्व है।राजन! इस प्रकार मृत्यु और अमृत दोनों अपने भीतर ही स्थित हैं। ये दोनों अदृश्य रहकर प्राणियों को लड़ाते हैं अर्थात किसी को अपना मानना और किसी को अपना न मानना यह भाव ही यद्ध का कारण है, इसमें संशय नहीं है।भरतनन्दन! यदि इस जगत् की सत्ता का विनाश न होना ही निश्चित हो, तब तो प्राणियों के शरीर का भेदन करके भी मनुष्य अहिंसा का ही फल प्राप्त करेगा।चराचर प्राणियों सहित समूची पृथ्वी को पाकर भी जिसकी उसमें ममता नहीं होती, वह उसको लेकर क्या करेगा अर्थात उस सम्पत्ति से उसका कोई अनर्थ नहीं हो सकता। किंतु कुन्तीनन्दन! जो वन में रहकर जंगली फल-मूलों से ही जीवन-निर्वाह करता है, उसकी भी यदि द्रव्यों में ममता है तो वह मौत के मुख में ही विद्यमान है। भारत! बाहरी और भीतरी शत्रुओं के स्वभाव को देखिये-समझिये (ये मायामय होने के कारण मिथ्या हैं, ऐसा निश्चय कीजिये)। जो मायिक पदार्थों को ममत्व की दृष्टि से नहीं देखता, वह महान् भय से छुटकारा पा जाता है।जिसका मन कामनाओं में आसक्त हैं, उसकी संसार के लोग प्रसंसा नहीं करते हैं। कोई भी प्रवृत्ति बिना कामना के नहीं होती और समस्त कामनाएँ मन से ही प्रकट होती हैं। विद्वान पुरुष कामनाओं को दु:ख का कारण मानकर उनका परित्याग कर देते हैं।योगी पुरुष अनेक जनमों के अभ्यास से योग को ही मोक्ष का मार्ग निश्चित करके कामनाओं का नाश कर डालता है। जो इस बात को जानता है, वह दान, वेदाध्ययन, तप, वेदाक्त कर्म, व्रत, यज्ञ, नियम और ध्यान-योगादि का कामनापूर्वक अनुष्ठान नहीं करता तथा जिस कर्म से वह कुछ कामना रखता है, वह धर्म नहीं है। वास्वत में कामनाओं का निग्रह ही धर्म है और वही मोक्ष का मूल है। युधिष्ठिर! इस विषय में प्राचीन बातों के जानकार विद्वान एक पुरातन गाथा का वर्णन किया करते हैं, जो कामगीता कहलाती है। उसे मैं आपको सुनाता हूँ, सुनिये। काम का कहना है कि कोई भी प्राणी वास्तविक उपाय (निर्ममता और योगाभ्यास) का आश्रय लिये बिना मेरा नाश नहीं कर सकता है।जो मनुष्य अपने में अस्त्रबल की अधिकता का अनुभव करके मुझे नष्ट करने का प्रयत्न करता है, उसके उस अस्त्रबल में मैं अभिमानरूप से पुन: प्रकट हो जाता हूँ।जो नाना प्रकार की दक्षिणा वाले यज्ञों द्वारा मुझे मारने का यत्न करता है, उसके चित्त में मैं उसी प्रकार उत्पन्न होता हूँ, जैसे उत्तम जंगम योनियों में धर्मात्मा। | ||
14:13, 30 जून 2017 का अवतरण
त्रयोदश (13) अध्याय: आश्वमेधिक पर्व (अश्वमेध पर्व)
श्रीकृष्ण द्वारा ममता के त्याग का महत्त्व, काम-गीता का उल्लेख और युधिष्ठिर को यज्ञ के लिये प्रेरणा करना
भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं- भारत! केवल राज्य आदि बाह्य पदार्थों का त्या करने से ही सिद्धि नहीं प्राप्त होती। शरीरिक द्रव्य का त्याग करके भी सिद्ध प्राप्त होती है अथवा नहीं भी होती है।बाह्य पदार्थों से अलग होकर भी जो शारीरिक सुख-विलास में आसक्त है, उसे जिस धर्म और सुख की प्राप्ति होती है, वह तुम्हारे साथ द्वेष करने वालों को ही प्राप्त हो।‘मम’ (मेरा) ये दो अक्षर ही मृत्युरूप है और ‘न मम’ (मेरा नहीं है) यह तीन अक्षरों का पद सनातन ब्रह्म की प्राप्ति का कारण है। ममता मृत्यु है और उसका त्याग सनातन अमृत्व है।राजन! इस प्रकार मृत्यु और अमृत दोनों अपने भीतर ही स्थित हैं। ये दोनों अदृश्य रहकर प्राणियों को लड़ाते हैं अर्थात किसी को अपना मानना और किसी को अपना न मानना यह भाव ही यद्ध का कारण है, इसमें संशय नहीं है।भरतनन्दन! यदि इस जगत् की सत्ता का विनाश न होना ही निश्चित हो, तब तो प्राणियों के शरीर का भेदन करके भी मनुष्य अहिंसा का ही फल प्राप्त करेगा।चराचर प्राणियों सहित समूची पृथ्वी को पाकर भी जिसकी उसमें ममता नहीं होती, वह उसको लेकर क्या करेगा अर्थात उस सम्पत्ति से उसका कोई अनर्थ नहीं हो सकता। किंतु कुन्तीनन्दन! जो वन में रहकर जंगली फल-मूलों से ही जीवन-निर्वाह करता है, उसकी भी यदि द्रव्यों में ममता है तो वह मौत के मुख में ही विद्यमान है। भारत! बाहरी और भीतरी शत्रुओं के स्वभाव को देखिये-समझिये (ये मायामय होने के कारण मिथ्या हैं, ऐसा निश्चय कीजिये)। जो मायिक पदार्थों को ममत्व की दृष्टि से नहीं देखता, वह महान् भय से छुटकारा पा जाता है।जिसका मन कामनाओं में आसक्त हैं, उसकी संसार के लोग प्रसंसा नहीं करते हैं। कोई भी प्रवृत्ति बिना कामना के नहीं होती और समस्त कामनाएँ मन से ही प्रकट होती हैं। विद्वान पुरुष कामनाओं को दु:ख का कारण मानकर उनका परित्याग कर देते हैं।योगी पुरुष अनेक जनमों के अभ्यास से योग को ही मोक्ष का मार्ग निश्चित करके कामनाओं का नाश कर डालता है। जो इस बात को जानता है, वह दान, वेदाध्ययन, तप, वेदाक्त कर्म, व्रत, यज्ञ, नियम और ध्यान-योगादि का कामनापूर्वक अनुष्ठान नहीं करता तथा जिस कर्म से वह कुछ कामना रखता है, वह धर्म नहीं है। वास्वत में कामनाओं का निग्रह ही धर्म है और वही मोक्ष का मूल है। युधिष्ठिर! इस विषय में प्राचीन बातों के जानकार विद्वान एक पुरातन गाथा का वर्णन किया करते हैं, जो कामगीता कहलाती है। उसे मैं आपको सुनाता हूँ, सुनिये। काम का कहना है कि कोई भी प्राणी वास्तविक उपाय (निर्ममता और योगाभ्यास) का आश्रय लिये बिना मेरा नाश नहीं कर सकता है।जो मनुष्य अपने में अस्त्रबल की अधिकता का अनुभव करके मुझे नष्ट करने का प्रयत्न करता है, उसके उस अस्त्रबल में मैं अभिमानरूप से पुन: प्रकट हो जाता हूँ।जो नाना प्रकार की दक्षिणा वाले यज्ञों द्वारा मुझे मारने का यत्न करता है, उसके चित्त में मैं उसी प्रकार उत्पन्न होता हूँ, जैसे उत्तम जंगम योनियों में धर्मात्मा।
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