"महाभारत सौप्तिक पर्व अध्याय 6 श्लोक 18-34": अवतरणों में अंतर

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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: सौप्तिक पर्व: षष्‍ठ अध्याय: श्लोक 18-34  का हिन्दी अनुवाद </div>
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: सौप्तिक पर्व: षष्‍ठ अध्याय: श्लोक 18-34  का हिन्दी अनुवाद </div>


अस्‍त्रहीन अश्‍वत्‍थामा यह अत्‍यंत अद्भुत दृश्‍य देखकर कृपाचार्य के वचनों का बारंबार स्‍मरण करता हुआ अत्‍यन्‍त संतप्‍त हो उठा और मन-ही-मन इस प्रकार कहने लगा- । जो पुरुष अप्रिय किंतु हितकर वचन बोलने वाले अपने सुहृदयों की सीख नहीं सुनता है, वह विपत्ति में पड़कर उसी तरह शोक करता है, जैसे मैं अपने उन दोनों सुहृदयों की आज्ञा का उल्‍लघंन करके कष्‍ट पा रहा हूँ । जो मुर्ख शास्‍त्रदर्शी पुरुषों की आज्ञा का उल्‍लघंन करके दूसरों की हिंसा करना चाहता है वह धर्ममार्ग से भ्रष्‍ट हो कुमार्ग में पड़कर स्‍वयं ही मारा जाता है । गौ, ब्राह्मण, राजा, स्‍त्री, मित्र, माता, गुरू, दुर्बल, जड़, अन्‍धें, सोये हुये, डरे हुए, मतवाले, उन्‍मत्त और असावधान पुरुषों पर मनुष्‍य शस्‍त्र न चलाये । इस प्रकार गुरूजनों ने पहले-से ही सब लोगों को सदा के लिये यह शिक्षा दे रखी है। परंतु मैं उस शास्‍त्रोक्‍त सनातन मार्ग का उल्‍लघंन करके बिना रास्‍ते के ही चलकर इस प्रकार अनुचित कम का आरम्‍भ करके भयंकर आपत्ति में पड़ गया हूँ । मनीषी पुरुष उसी को अत्‍यन्‍त भयंकर आपत्ति बताते हैं, जब कि मनुष्‍य किसी महान कार्य का आरम्‍भ करके भय के कारण भी उससे पीछे हट जाता है और शक्ति-बल से यहां उस कर्म को करने में असमर्थ हो जाता है । मानव-कर्म (पुरुषार्थ) को दैव से बढकर नहीं बताया गया है। पुरुषार्थ करते समय यदि दैववश सिद्घि नहीं प्राप्‍त हुई तो मनुष्‍य धर्ममार्ग से भ्रष्‍ट होकर विपत्ति में फँस जाता है। यदि मनुष्‍य किसी कार्य को आरम्‍भ करके यहां भय के कारण उससे निवृत हो जाता है तो ज्ञानी पुरुष उसकी उस कार्य को करने की प्रतिज्ञा को अज्ञान या मूर्खता बताते हैं । इस समय अपने ही दुष्‍कर्म के कारण मुझ पर यह भय पहूँचा है। द्रोणाचार्य का पुत्र किसी प्रकार भी युद्ध से पीछे नहीं हट सकता; परंतु कया करूँ, यह महाभूत मेरे मार्ग में विध्‍न डालने के लिये दैवदण्‍ड के समान उठ खड़ा हुआ है । मैं सब प्रकार से सोचने-विचारने पर भी नहीं समझ पाता कि यह कौन है? निश्‍चय ही जो मेरी यह कलुषित बुद्धि अधर्म में प्रवृत हुई है, उसी का विघात करने के लिये यह भयंकर परिणाम सामने आया है, अत: आज युद्ध से मेरा पीछे हटना दैव के विधान से ही सम्‍भव हुआ है । दैव की अनुकूलता के सिवा दूसरा कोई उपाय नहीं है, जिससे किसी प्रकार फिर यहां युद्धविषयक उद्योग किया जा स‍के; इसलिये आज मैं सर्वव्‍यापी भगवान महादेवजी की शरण लेता हूँ। वे ही मेरे सामने आये हुए इस भयानक दैवदण्‍ड का नाश करेंगे। भगवान शंकर तपस्‍या और पराक्रम में सब देवताओं से बढकर हैं; अत: मैं उन्‍हीं रोग-शोक से रहित, जटाजूटधारी, देवताओं के भी देवता, भबवाती उमा के प्राणवल्‍लभ, कपालमालाधारी, भगनेत्र-विनाशक, पापहारी, त्रिशूलधारी एवं पर्वतपर शयन करने वाले रूद्रदेव की शरण में जाता हूँ ।
अस्‍त्रहीन अश्‍वत्‍थामा यह अत्‍यंत अद्भुत दृश्‍य देखकर कृपाचार्य के वचनों का बारंबार स्‍मरण करता हुआ अत्‍यन्‍त संतप्‍त हो उठा और मन-ही-मन इस प्रकार कहने लगा- । जो पुरुष अप्रिय किंतु हितकर वचन बोलने वाले अपने सुहृदयों की सीख नहीं सुनता है, वह विपत्ति में पड़कर उसी तरह शोक करता है, जैसे मैं अपने उन दोनों सुहृदयों की आज्ञा का उल्‍लघंन करके कष्‍ट पा रहा हूँ । जो मुर्ख शास्‍त्रदर्शी पुरुषों की आज्ञा का उल्‍लघंन करके दूसरों की हिंसा करना चाहता है वह धर्ममार्ग से भ्रष्‍ट हो कुमार्ग में पड़कर स्‍वयं ही मारा जाता है । गौ, ब्राह्मण, राजा, स्‍त्री, मित्र, माता, गुरू, दुर्बल, जड़, अन्‍धें, सोये हुये, डरे हुए, मतवाले, उन्‍मत्त और असावधान पुरुषों पर मनुष्‍य शस्‍त्र न चलाये । इस प्रकार गुरूजनों ने पहले-से ही सब लोगों को सदा के लिये यह शिक्षा दे रखी है। परंतु मैं उस शास्‍त्रोक्‍त सनातन मार्ग का उल्‍लघंन करके बिना रास्‍ते के ही चलकर इस प्रकार अनुचित कम का आरम्‍भ करके भयंकर आपत्ति में पड़ गया हूँ । मनीषी पुरुष उसी को अत्‍यन्‍त भयंकर आपत्ति बताते हैं, जब कि मनुष्‍य किसी महान् कार्य का आरम्‍भ करके भय के कारण भी उससे पीछे हट जाता है और शक्ति-बल से यहां उस कर्म को करने में असमर्थ हो जाता है । मानव-कर्म (पुरुषार्थ) को दैव से बढकर नहीं बताया गया है। पुरुषार्थ करते समय यदि दैववश सिद्घि नहीं प्राप्‍त हुई तो मनुष्‍य धर्ममार्ग से भ्रष्‍ट होकर विपत्ति में फँस जाता है। यदि मनुष्‍य किसी कार्य को आरम्‍भ करके यहां भय के कारण उससे निवृत हो जाता है तो ज्ञानी पुरुष उसकी उस कार्य को करने की प्रतिज्ञा को अज्ञान या मूर्खता बताते हैं । इस समय अपने ही दुष्‍कर्म के कारण मुझ पर यह भय पहूँचा है। द्रोणाचार्य का पुत्र किसी प्रकार भी युद्ध से पीछे नहीं हट सकता; परंतु कया करूँ, यह महाभूत मेरे मार्ग में विध्‍न डालने के लिये दैवदण्‍ड के समान उठ खड़ा हुआ है । मैं सब प्रकार से सोचने-विचारने पर भी नहीं समझ पाता कि यह कौन है? निश्‍चय ही जो मेरी यह कलुषित बुद्धि अधर्म में प्रवृत हुई है, उसी का विघात करने के लिये यह भयंकर परिणाम सामने आया है, अत: आज युद्ध से मेरा पीछे हटना दैव के विधान से ही सम्‍भव हुआ है । दैव की अनुकूलता के सिवा दूसरा कोई उपाय नहीं है, जिससे किसी प्रकार फिर यहां युद्धविषयक उद्योग किया जा स‍के; इसलिये आज मैं सर्वव्‍यापी भगवान महादेवजी की शरण लेता हूँ। वे ही मेरे सामने आये हुए इस भयानक दैवदण्‍ड का नाश करेंगे। भगवान शंकर तपस्‍या और पराक्रम में सब देवताओं से बढकर हैं; अत: मैं उन्‍हीं रोग-शोक से रहित, जटाजूटधारी, देवताओं के भी देवता, भबवाती उमा के प्राणवल्‍लभ, कपालमालाधारी, भगनेत्र-विनाशक, पापहारी, त्रिशूलधारी एवं पर्वतपर शयन करने वाले रूद्रदेव की शरण में जाता हूँ ।





11:19, 1 अगस्त 2017 का अवतरण

षष्‍ठ (6) अध्याय: सौप्तिक पर्व

महाभारत: सौप्तिक पर्व: षष्‍ठ अध्याय: श्लोक 18-34 का हिन्दी अनुवाद

अस्‍त्रहीन अश्‍वत्‍थामा यह अत्‍यंत अद्भुत दृश्‍य देखकर कृपाचार्य के वचनों का बारंबार स्‍मरण करता हुआ अत्‍यन्‍त संतप्‍त हो उठा और मन-ही-मन इस प्रकार कहने लगा- । जो पुरुष अप्रिय किंतु हितकर वचन बोलने वाले अपने सुहृदयों की सीख नहीं सुनता है, वह विपत्ति में पड़कर उसी तरह शोक करता है, जैसे मैं अपने उन दोनों सुहृदयों की आज्ञा का उल्‍लघंन करके कष्‍ट पा रहा हूँ । जो मुर्ख शास्‍त्रदर्शी पुरुषों की आज्ञा का उल्‍लघंन करके दूसरों की हिंसा करना चाहता है वह धर्ममार्ग से भ्रष्‍ट हो कुमार्ग में पड़कर स्‍वयं ही मारा जाता है । गौ, ब्राह्मण, राजा, स्‍त्री, मित्र, माता, गुरू, दुर्बल, जड़, अन्‍धें, सोये हुये, डरे हुए, मतवाले, उन्‍मत्त और असावधान पुरुषों पर मनुष्‍य शस्‍त्र न चलाये । इस प्रकार गुरूजनों ने पहले-से ही सब लोगों को सदा के लिये यह शिक्षा दे रखी है। परंतु मैं उस शास्‍त्रोक्‍त सनातन मार्ग का उल्‍लघंन करके बिना रास्‍ते के ही चलकर इस प्रकार अनुचित कम का आरम्‍भ करके भयंकर आपत्ति में पड़ गया हूँ । मनीषी पुरुष उसी को अत्‍यन्‍त भयंकर आपत्ति बताते हैं, जब कि मनुष्‍य किसी महान् कार्य का आरम्‍भ करके भय के कारण भी उससे पीछे हट जाता है और शक्ति-बल से यहां उस कर्म को करने में असमर्थ हो जाता है । मानव-कर्म (पुरुषार्थ) को दैव से बढकर नहीं बताया गया है। पुरुषार्थ करते समय यदि दैववश सिद्घि नहीं प्राप्‍त हुई तो मनुष्‍य धर्ममार्ग से भ्रष्‍ट होकर विपत्ति में फँस जाता है। यदि मनुष्‍य किसी कार्य को आरम्‍भ करके यहां भय के कारण उससे निवृत हो जाता है तो ज्ञानी पुरुष उसकी उस कार्य को करने की प्रतिज्ञा को अज्ञान या मूर्खता बताते हैं । इस समय अपने ही दुष्‍कर्म के कारण मुझ पर यह भय पहूँचा है। द्रोणाचार्य का पुत्र किसी प्रकार भी युद्ध से पीछे नहीं हट सकता; परंतु कया करूँ, यह महाभूत मेरे मार्ग में विध्‍न डालने के लिये दैवदण्‍ड के समान उठ खड़ा हुआ है । मैं सब प्रकार से सोचने-विचारने पर भी नहीं समझ पाता कि यह कौन है? निश्‍चय ही जो मेरी यह कलुषित बुद्धि अधर्म में प्रवृत हुई है, उसी का विघात करने के लिये यह भयंकर परिणाम सामने आया है, अत: आज युद्ध से मेरा पीछे हटना दैव के विधान से ही सम्‍भव हुआ है । दैव की अनुकूलता के सिवा दूसरा कोई उपाय नहीं है, जिससे किसी प्रकार फिर यहां युद्धविषयक उद्योग किया जा स‍के; इसलिये आज मैं सर्वव्‍यापी भगवान महादेवजी की शरण लेता हूँ। वे ही मेरे सामने आये हुए इस भयानक दैवदण्‍ड का नाश करेंगे। भगवान शंकर तपस्‍या और पराक्रम में सब देवताओं से बढकर हैं; अत: मैं उन्‍हीं रोग-शोक से रहित, जटाजूटधारी, देवताओं के भी देवता, भबवाती उमा के प्राणवल्‍लभ, कपालमालाधारी, भगनेत्र-विनाशक, पापहारी, त्रिशूलधारी एवं पर्वतपर शयन करने वाले रूद्रदेव की शरण में जाता हूँ ।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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