"महाभारत स्‍त्री पर्व अध्याय 13 श्लोक 1-17": अवतरणों में अंतर

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श्री कृष्‍णका धृतराष्‍ट्रको फटकारकर उनका क्रोध शान्‍त करना और धृतराष्‍ट्रका पाण्‍डवोंको हृदयसे लगाना
श्री कृष्‍णका धृतराष्‍ट्रको फटकारकर उनका क्रोध शान्‍त करना और धृतराष्‍ट्रका पाण्‍डवोंको हृदयसे लगाना


वैशम्‍पायन उवाच वैशम्‍पायनजी कहते हैं -- राजन् ! तदनन्‍तर सेवक-गण शौच-सम्‍बन्‍धी कार्य सम्‍पन्‍न करानेके लिय राजा धृतराष्‍ट्र-की सेवामें उपस्थित हुए । जब वे शौचकृत्‍य पूर्ण कर चुके, तब भगवान मधुसुदनने फिर उनसे कहा--  ‘राजन ! आपने वेदों और नाना प्रकारके शास्‍त्रोंका अध्‍ययन किया है । सभी पुराणों और केवल राजधर्मोंका भी श्रवण किया है । ‘ऐसे विद्वान, परम बुद्धिमान् और बलाबलका निर्णय करनेमें समर्थ होकर भी अपने ही अपराधसे होनेवाले इस विनाशको देखकर आप ऐसा क्रोध क्‍यों कर रहे हैं ?  ‘भरतनन्‍दन ! मैंने तो उसी समय आपसे यह बात कह दी थी, भीष्‍म, द्रोणाचार्य, विदुर और संजयने भी आपको समझाया था । राजन् ! परंतु आपने किसी की बात नहीं मानी । ‘कुरुनन्‍दन ! हमलोगोंने आपको बहुत रोका; परंतु आपने बल और शौर्यमें पाण्‍डवोंको बढा-चढ़ा जानकर भी हमारा कहना नहीं माना । ‘जिसकी बुद्धि स्थिर है, ऐसा जो राजा स्‍वयं दोषोंको देखता और देश-कालके विभागको समझता है, वह परम कल्‍याणका भागी होता है । ‘जो हितकी बात बतानेपर भी हिताहितकी बातको नहीं समझ पाता, वह अन्‍यायका आश्रय ले बड़ी भारी विपत्तिमें पड़कर शोक करता है ।‘भरतनन्‍दन ! आप अपनी ओर तो देखिये । आपका बर्ताव सदा ही न्‍यायके विपरीत रहा है । राजन् ! आप अपने मनको वशमें न करके सदा दुर्योधनके अधीन रहे हैं । ‘अपने ही अपराधसे विपत्तीमें पड़कर आप भीमसेनको क्‍यों मार डालना चाहते हैं ? इसलिये क्रोधको रोकिये और अपने दुष्‍कर्मोंको याद कीजिये । ‘जिस नीच दुर्योधनने मनमें जलन रखनेके कारण पात्र्चाल राजकुमारी कृष्‍णाको भरी सभामें बुलाकर अपमानित किया, उसे वैरका बदला लेनेकी इच्‍छासे भीमसेनने मार डाला । ‘आप अपने और दुरात्‍मा पुत्र दुर्योधनके उस अत्‍याचारपर तो दृष्टि डालिये, जब कि बिना किसी अपराधके ही आपने पाण्‍डवोंका परित्‍याग कर दिया था’ । वैशम्‍पायन उवाच वैशम्‍पाचनजी कहते हैं – नरेश्‍वर ! जब इस प्रकार भगवान् श्रीकृष्‍णने सब सच्‍ची-सच्‍ची बातें कह डालीं, तब पृथ्‍वीपति धृतराष्‍ट्रने देवकीनन्‍दन श्रीकृष्‍णसे कहा- ‘महाबाहु ! माधव ! आप जैसा कह रहे हैं, ठीक ऐसी ही बात है; परतु पुत्रका स्‍नेह प्रबल होता है, जिसने मुझे धैर्यसे विचलित कर दिया था ।
वैशम्‍पायन उवाच वैशम्‍पायनजी कहते हैं -- राजन् ! तदनन्‍तर सेवक-गण शौच-सम्‍बन्‍धी कार्य सम्‍पन्‍न करानेके लिय राजा धृतराष्‍ट्र-की सेवामें उपस्थित हुए । जब वे शौचकृत्‍य पूर्ण कर चुके, तब भगवान मधुसुदनने फिर उनसे कहा--  ‘राजन ! आपने वेदों और नाना प्रकारके शास्‍त्रोंका अध्‍ययन किया है । सभी पुराणों और केवल राजधर्मोंका भी श्रवण किया है । ‘ऐसे विद्वान, परम बुद्धिमान् और बलाबलका निर्णय करनेमें समर्थ होकर भी अपने ही अपराधसे होने वाले इस विनाशको देखकर आप ऐसा क्रोध क्‍यों कर रहे हैं ?  ‘भरतनन्‍दन ! मैंने तो उसी समय आपसे यह बात कह दी थी, भीष्‍म, द्रोणाचार्य, विदुर और संजयने भी आपको समझाया था । राजन् ! परंतु आपने किसी की बात नहीं मानी । ‘कुरुनन्‍दन ! हमलोगोंने आपको बहुत रोका; परंतु आपने बल और शौर्यमें पाण्‍डवोंको बढा-चढ़ा जानकर भी हमारा कहना नहीं माना । ‘जिसकी बुद्धि स्थिर है, ऐसा जो राजा स्‍वयं दोषोंको देखता और देश-कालके विभागको समझता है, वह परम कल्‍याणका भागी होता है । ‘जो हितकी बात बतानेपर भी हिताहितकी बातको नहीं समझ पाता, वह अन्‍यायका आश्रय ले बड़ी भारी विपत्तिमें पड़कर शोक करता है ।‘भरतनन्‍दन ! आप अपनी ओर तो देखिये । आपका बर्ताव सदा ही न्‍यायके विपरीत रहा है । राजन् ! आप अपने मनको वशमें न करके सदा दुर्योधनके अधीन रहे हैं । ‘अपने ही अपराधसे विपत्तीमें पड़कर आप भीमसेनको क्‍यों मार डालना चाहते हैं ? इसलिये क्रोधको रोकिये और अपने दुष्‍कर्मोंको याद कीजिये । ‘जिस नीच दुर्योधनने मनमें जलन रखनेके कारण पात्र्चाल राजकुमारी कृष्‍णाको भरी सभामें बुलाकर अपमानित किया, उसे वैरका बदला लेनेकी इच्‍छासे भीमसेनने मार डाला । ‘आप अपने और दुरात्‍मा पुत्र दुर्योधनके उस अत्‍याचारपर तो दृष्टि डालिये, जब कि बिना किसी अपराधके ही आपने पाण्‍डवोंका परित्‍याग कर दिया था’ । वैशम्‍पायन उवाच वैशम्‍पाचनजी कहते हैं – नरेश्‍वर ! जब इस प्रकार भगवान् श्रीकृष्‍णने सब सच्‍ची-सच्‍ची बातें कह डालीं, तब पृथ्‍वीपति धृतराष्‍ट्रने देवकीनन्‍दन श्रीकृष्‍णसे कहा- ‘महाबाहु ! माधव ! आप जैसा कह रहे हैं, ठीक ऐसी ही बात है; परतु पुत्रका स्‍नेह प्रबल होता है, जिसने मुझे धैर्यसे विचलित कर दिया था ।
‘श्रीकृष्‍ण ! सौभग्‍यकी बात है कि आपसे सुरक्षित होकर बलवान् सत्‍यपराक्रमी पुरुषसिंह भीमसेन मेरी दोनों भुजाओं- के बीचमें नही आये । ‘माधव ! अब इस समय मैं शान्‍त हूँ । मेरा क्रोध उतर गया है और चिन्‍ता भी दूर हो गयी है; अत: मैं मध्‍यम पाण्‍डव वीर अर्जुनको देखना चाहता हूँ । ‘समस्‍त राजाओं तथा अपने पुत्रोंके मारे जानेपर अब मेरा प्रेम और हितचिन्‍तन पाण्‍डुके इन पुत्रोंपर ही आश्रित है’ ।
‘श्रीकृष्‍ण ! सौभग्‍यकी बात है कि आपसे सुरक्षित होकर बलवान् सत्‍यपराक्रमी पुरुषसिंह भीमसेन मेरी दोनों भुजाओं- के बीचमें नही आये । ‘माधव ! अब इस समय मैं शान्‍त हूँ । मेरा क्रोध उतर गया है और चिन्‍ता भी दूर हो गयी है; अत: मैं मध्‍यम पाण्‍डव वीर अर्जुनको देखना चाहता हूँ । ‘समस्‍त राजाओं तथा अपने पुत्रोंके मारे जानेपर अब मेरा प्रेम और हितचिन्‍तन पाण्‍डुके इन पुत्रोंपर ही आश्रित है’ ।
तदनन्‍तर रोते हुए धृतराष्‍ट्रने सुन्‍दर शरीरवाले भीमसेन, अर्जुन तथा माद्रीके दोनों पुत्र नरवीर नकुल-सहदेवको अपने अडगोंसे लगाया और उन्‍हें सान्‍तवना देकर कहा – ‘तुम्‍हारा कल्‍याण हो’ ।
तदनन्‍तर रोते हुए धृतराष्‍ट्रने सुन्‍दर शरीरवाले भीमसेन, अर्जुन तथा माद्रीके दोनों पुत्र नरवीर नकुल-सहदेवको अपने अडगोंसे लगाया और उन्‍हें सान्‍तवना देकर कहा – ‘तुम्‍हारा कल्‍याण हो’ ।

13:47, 6 सितम्बर 2017 के समय का अवतरण

त्रयोदश (13) अध्याय: स्‍त्रीपर्व (जलप्रदानिक पर्व )

महाभारत: स्‍त्रीपर्व: द्वादश अध्याय: श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद

श्री कृष्‍णका धृतराष्‍ट्रको फटकारकर उनका क्रोध शान्‍त करना और धृतराष्‍ट्रका पाण्‍डवोंको हृदयसे लगाना

वैशम्‍पायन उवाच वैशम्‍पायनजी कहते हैं -- राजन् ! तदनन्‍तर सेवक-गण शौच-सम्‍बन्‍धी कार्य सम्‍पन्‍न करानेके लिय राजा धृतराष्‍ट्र-की सेवामें उपस्थित हुए । जब वे शौचकृत्‍य पूर्ण कर चुके, तब भगवान मधुसुदनने फिर उनसे कहा-- ‘राजन ! आपने वेदों और नाना प्रकारके शास्‍त्रोंका अध्‍ययन किया है । सभी पुराणों और केवल राजधर्मोंका भी श्रवण किया है । ‘ऐसे विद्वान, परम बुद्धिमान् और बलाबलका निर्णय करनेमें समर्थ होकर भी अपने ही अपराधसे होने वाले इस विनाशको देखकर आप ऐसा क्रोध क्‍यों कर रहे हैं ? ‘भरतनन्‍दन ! मैंने तो उसी समय आपसे यह बात कह दी थी, भीष्‍म, द्रोणाचार्य, विदुर और संजयने भी आपको समझाया था । राजन् ! परंतु आपने किसी की बात नहीं मानी । ‘कुरुनन्‍दन ! हमलोगोंने आपको बहुत रोका; परंतु आपने बल और शौर्यमें पाण्‍डवोंको बढा-चढ़ा जानकर भी हमारा कहना नहीं माना । ‘जिसकी बुद्धि स्थिर है, ऐसा जो राजा स्‍वयं दोषोंको देखता और देश-कालके विभागको समझता है, वह परम कल्‍याणका भागी होता है । ‘जो हितकी बात बतानेपर भी हिताहितकी बातको नहीं समझ पाता, वह अन्‍यायका आश्रय ले बड़ी भारी विपत्तिमें पड़कर शोक करता है ।‘भरतनन्‍दन ! आप अपनी ओर तो देखिये । आपका बर्ताव सदा ही न्‍यायके विपरीत रहा है । राजन् ! आप अपने मनको वशमें न करके सदा दुर्योधनके अधीन रहे हैं । ‘अपने ही अपराधसे विपत्तीमें पड़कर आप भीमसेनको क्‍यों मार डालना चाहते हैं ? इसलिये क्रोधको रोकिये और अपने दुष्‍कर्मोंको याद कीजिये । ‘जिस नीच दुर्योधनने मनमें जलन रखनेके कारण पात्र्चाल राजकुमारी कृष्‍णाको भरी सभामें बुलाकर अपमानित किया, उसे वैरका बदला लेनेकी इच्‍छासे भीमसेनने मार डाला । ‘आप अपने और दुरात्‍मा पुत्र दुर्योधनके उस अत्‍याचारपर तो दृष्टि डालिये, जब कि बिना किसी अपराधके ही आपने पाण्‍डवोंका परित्‍याग कर दिया था’ । वैशम्‍पायन उवाच वैशम्‍पाचनजी कहते हैं – नरेश्‍वर ! जब इस प्रकार भगवान् श्रीकृष्‍णने सब सच्‍ची-सच्‍ची बातें कह डालीं, तब पृथ्‍वीपति धृतराष्‍ट्रने देवकीनन्‍दन श्रीकृष्‍णसे कहा- ‘महाबाहु ! माधव ! आप जैसा कह रहे हैं, ठीक ऐसी ही बात है; परतु पुत्रका स्‍नेह प्रबल होता है, जिसने मुझे धैर्यसे विचलित कर दिया था । ‘श्रीकृष्‍ण ! सौभग्‍यकी बात है कि आपसे सुरक्षित होकर बलवान् सत्‍यपराक्रमी पुरुषसिंह भीमसेन मेरी दोनों भुजाओं- के बीचमें नही आये । ‘माधव ! अब इस समय मैं शान्‍त हूँ । मेरा क्रोध उतर गया है और चिन्‍ता भी दूर हो गयी है; अत: मैं मध्‍यम पाण्‍डव वीर अर्जुनको देखना चाहता हूँ । ‘समस्‍त राजाओं तथा अपने पुत्रोंके मारे जानेपर अब मेरा प्रेम और हितचिन्‍तन पाण्‍डुके इन पुत्रोंपर ही आश्रित है’ । तदनन्‍तर रोते हुए धृतराष्‍ट्रने सुन्‍दर शरीरवाले भीमसेन, अर्जुन तथा माद्रीके दोनों पुत्र नरवीर नकुल-सहदेवको अपने अडगोंसे लगाया और उन्‍हें सान्‍तवना देकर कहा – ‘तुम्‍हारा कल्‍याण हो’ ।


इस प्रकार श्रीमहाभारत स्त्रीपर्वके अन्‍तर्गत जलप्रदानिकपर्वमें ‘धृतराष्‍ट्रका क्रोध छोड़कर पाण्‍डवोंको हृदयसे लगाना’ नामक तेरहवॉं अध्‍याय पूरा हुआ ।        


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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