"महाभारत आश्रमवासिक पर्व अध्याय 3 श्लोक 35-52": अवतरणों में अंतर

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
यहाँ जाएँ:नेविगेशन, खोजें
No edit summary
 
छो (1 अवतरण)
(कोई अंतर नहीं)

14:07, 23 अगस्त 2015 का अवतरण

तृतीय (3) अध्याय: आश्रमवासिक पर्व (आश्रमवास पर्व)

महाभारत: आश्रमवासिक पर्व: तृतीय अध्याय: श्लोक 35-52 का हिन्दी अनुवाद

‘तुम शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ और सदा धर्म पर अनुराग रखने वाले हो । राजा समस्त प्राणियों के लिये गुरूजन की भाँति आदरणीय होता है । इसलिये तुमसे ऐसा अनुरोध करता हूँ । वीर ! तुम्हारी अनुमति मिल जाने पर मैं वन को चला जाऊँगा। ‘राजन् वहाँ मैं चीर और वल्कल धारण करके इस गान्धारी के साथ वन में विचरूँगा और तुम्हें आशीर्वाद देता रहूँगा। ‘तात ! भरत श्रेष्ठ नरेश्वर ! हमारे कुल के सभी राजाओं के लिये यही उचित है कि वे अन्तिम अवस्था में पुत्रों को राज्य देकर स्वयं वन में पधारें। ‘वीर ! वहाँ मैं वायु पीकर अथवा उपवास करके रहूँगा तथा अपनी इस धर्मपत्नी के साथ उत्तम तपस्या करूँगा। ‘बेटा ! तुम भी उस तपस्या के उत्तम फल के भागी बनोगे; क्योंकि तुम राजा हो और राजा अपने राज्य के भीतर होने वाले भले-बुरे सभी कर्मों के फलभागी होते हैं’। युधिष्ठिर ने कहा – महाराज! आप यहाँ रहकर इस प्रकार दुःख उठा रहे थे और मुझे उसकी जानकारी न हो सकी, इसलिये अब यह राज्य मुझे प्रसन्न नहीं रख सकता । हाय ! मेरी बुद्धि कितनी खराब है ? मुझ जैसे प्रमादी और राज्यासक्त पुरूष को धिक्कार है। आप दुःख से आतुर और उपवास करने के कारण अत्यन्त दुर्बल होकर पृथ्वी पर शयन कर रहे हैं तथा भोजन पर भी संयम कर लिया है और मैं भाईयों सहित आपकी इस अवस्था का पता ही न पा सका। अहो ! आपने अपने विचारों को छिपाकर मुझ मूर्ख को अब तक धोखें में डाल रखा था; क्योंकि पहले मुझे यह विश्वास दिलाकर कि मैं सुखी हूँ, आप आज तक यह दुःख भोगते रहे। महाराज ! इस राज्य से, इन भोगों से, इन यज्ञों से अथवा इस सुख सामग्री से मुझे क्या लाभ हुआ ? जब कि मेरे ही पास रहकर आपको इतने दुःख उठाने पड़े। जनेश्वर ! आप दुःखी होकर जो ऐसी बात कह रहे हैं, इससे मैं उस समस्त राज्य को और अपने को भी दुःखित समझता हूँ। आप ही हमारे पिता, आप ही माता ओर आप ही परम गुरू हैं । आपसे विलग होकर हम कहाँ रहेंगे। नृपश्रेष्ठ ! महाराज ! युयुत्सु आपके औरस पुत्र हैं; ये ही राजा हों अथवा और किसी को जिसे आप उचित समझते हों, राजा बना दें या स्वयं ही इस राज्य का शासन करें । मैं ही वन को चला जाऊँगा । पिताजी ! मैं पहले से ही अपयश की आग में जल चुका हूँ, अब पुनः आप भी मुझे न जलाइये। मैं राजा नहीं, आप ही राजा हैं । मैं तो आपकी आज्ञा के अधीन रहने वाला सेवक हूँ । आप धर्म के ज्ञाता गुरू हैं । मैं आपको कैसे आज्ञा दे सकता हूँ। निष्पाप नरेश ! दुर्योधन ने जो कुछ किया है, उसके लिये हमारे हृदय में तनिक भी क्रोध नहीं है। जो कुछ हुआ है, वैसी ही होनकार थी । हम और दूसरे लोग उसी से मोहित थे। जैसे दुर्योधन आदि आपके पुत्र थे, वैसे ही हम भी हैं । मेरे लिये गान्धारी और कुन्ती में कोई अन्तर नहीं है। राजन् ! यदि आप मुझे छोड़कर चले जायँगे तो मैं अपनी सौगन्ध खाकर सत्य कहता हूँ कि मैं भी आपके पीछे-पीछे चल दूँगा।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख