"महाभारत आश्रमवासिक पर्व अध्याय 21 श्लोक 1-16": अवतरणों में अंतर
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एकविंश (21) अध्याय: आश्रमवासिक पर्व (आश्रमवास पर्व)
- धृतराष्ट्र आदि के लिये पाण्डवों तथा पुरवासियों की चिन्ता
वैशम्पायन जी कहते हैं - जनमेजय ! कौरवराज धृतराष्ट्र के वन में चले जाने पर पाण्डव दुःख और शोक से संतप्त रहने लगे । माता के विछोह का शोक उनके हृदय को दग्ध किये देता था। इसी प्रकार समस्त पुरवासी मनुष्य भी राजा धृतराष्ट्र के लिये निरन्तर शोकमग्न रहते थे तथा ब्राह्मण लोग सदा उन वृद्धा नरेश के विषय में वहाँ इस प्रकार चर्चा किया करते थे । ‘हाय ! हमारे बूढे़ महाराज उस निर्जन वन में कैसे रहते होंगे ? महाभागा गान्धारी तथा कुन्तिभोजकुमारी पृथा देवी भी इसी तरह वहाँ दिन बिताती होंगी ? ‘जिनके सारे पुत्र मारे गये, वे प्रज्ञाचक्षु राजर्षि धृतराष्ट्र सुख भोगने के योग्य होकर भी उस विशाल वन में जाकर किस अवस्था में दुःख के दिन बिताते होंगे ? ‘कुन्ती देवी ने तो बड़ा ही दुष्कर कर्म किया । अपने पुत्रों के दर्शन से वंचित हो राज्यलक्ष्मी को ठुकराकर उन्होंने वन में रहना पसंद किया। ‘अपने भाई की सेवा में लगे रहने वाले मनस्वी विदुर जी किस अवस्था में होंगे ? अपने स्वामी के शरीर की रक्षा करने वाले बुद्धिमान संजय भी कैसे होंगे ?’ बच्चे से लेकर बूढे़ तक समस्त पुरवासी चिन्ता और शोक से पीड़ित हो जहाँ तहाँ एक दूसरे से मिलकर उपर्युक्त बातें ही किया करते थे। समस्त पाण्डव तो निरन्तर अत्यन्त शोक में ही डूबे रहते थे । वे अपनी बूढ़ी माता के लिये इतने चिन्तित हो गये कि अधिक काल तक नगर में नहीं रह सके। जिनके पुत्र मारे गये थे, उन बूढ़े ताऊ महाराज धृतराष्ट्र, महाभागा गान्धारी की और परम् बुद्धिमान विदुर की अधिक चिन्ता के कारण उन्हें कभी चैन नहीं पड़ती थी । न तो राजकाज में उनका मन लगता था न स्त्रियों में । वेदाध्ययन में भी उनकी रूचि नहीं होती थी। राजा धृतराष्ट्र को याद करके वे अत्यन्त खिन्न एवं विरक्त हो उठते थे । भाई बन्धुओं के उस भयंकर वध का उन्हें बारंबार स्मरण हो आता था। महाबाहु जनमेजय ! युद्ध के मुहाने पर जो बालक अभिमन्यु का अन्यायपूर्वक विनाश किया गया, संग्राम में कभी पीठ न दिखाने वाले कर्ण का (परिचय न होने से) जो वध किया गया - इन घटनाओं को याद करके वे बेचैन हो जाते थे। इसी प्रकार द्रौपदी के पुत्रों तथा अन्यान्य सुहृदों के वध की बात याद करके उनके मन की सारी प्रसन्नता भाग जाती थी ऑभरतनन्दन ! जिसके प्रमुख वीर मारे गये तथा रत्नों का अपहरण हो गया, उस पृथ्वी की दुर्दशा का सदैव चिन्तन करते हुए पाण्डव कभी थोड़ी देर के लिये भी शान्ति नहीं पाते थे। जिनके बेटे मारे गये थे, वे द्रुपदकुमारी कृष्णा और भाविनी सुभद्रा दोनो देवियाँ निरन्तर अप्रसन्न और हर्षशून्य सी होकर चुपचाप बैठी रहती थीं। जनमेजय ! उन दिनों तुम्हारे पूर्व पितामह पाण्डव उत्तरा के पुत्र और तुम्हारे पिता परीक्षित् को देखकर ही अपने प्राणों को धारण करते थे।
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