"महाभारत स्त्री पर्व अध्याय 1 श्लोक 1-14": अवतरणों में अंतर
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प्रथम (1) अध्याय: स्त्री पर्व (जलप्रदानिक पर्व )
धृतराष्ट्र का विलाप और संजय का उनको सान्त्वना देना
अन्तर्यामी नारायणस्वरुप भगवान् श्रीकृष्ण, (उनके नित्य सखा) नरस्वरुप नरश्रेष्ठ अर्जुन, (उनकी लीला प्रकट करने वाली) भगवती सरस्वती और (उनकी लीलाओं का संकलन करने वाले ) महर्षि वेदव्यास को नमस्कार करके जय (महाभारत ) का पाठ करना चाहिये। जनमेजय ने पूछा–मुने ! दुर्योधन और उनकी सारी सेना का संहार हो जानेपर महाराज धृतराष्ट्र ने जब इस समाचार को सुना तो क्या किया ? इसी प्रकार कुरुवंशी राजा महामनस्वी धर्मपुत्र युधिष्ठिर ने तथा कृपाचार्य आदि तीनों महारथियों ने भी इसके बाद क्या किया ? अश्वत्थामा को श्रीकृष्ण से और पाण्डवों को अश्वत्थामा से जो परस्पर शाप प्राप्त हुए थें, वहाँ तक मैंने अश्वत्थामा की करतूत सुन ली ।अब उसके बाद का वृत्तान्त बताइये कि संजय ने धृतराष्ट्र से क्या कहा ? वैशम्पायनजी बोले–राजन् ! अपने सौ पुत्रों के मारे जाने पर राजा धृतराष्ट्र की दशा वैसी ही दयनीय हो गयी, जैसे समस्त शाखाओं के कट जाने पर वृक्ष की हो जाती है । वे पुत्रों के शोक से संतप्त हो उठे । महाराज ! उन्ही पुत्रों का ध्यान करते–करते वे मौन हो गये, चिन्ता में डूब गये । उस अवस्था में उनके पास जाकर संजय ने इस प्रकार कहा– ‘महाराज ! आप क्यों शोक कर रहे हैं ? इस शोक में जो आपकी सहायता कर सके, आपका दु:ख बँटा ले, ऐसा भी तो कोई नहीं बच गया है । प्रजानाथ ! इस युद्ध में अठाइस अक्षौहिणी सेनाएँ मारी गयी हैं । ‘इस समय यह पृथ्वी निर्जन होकर केवल सूनी सी दिखायी तेती है । नाना देशों के नरेश विभिन्न दिशाओं से आकर आपके पुत्र के साथ ही सब–के–सब काल के गाल में चले गये हैं । ‘राजन् ! अब आप क्रमश: अपने चाचा, ताऊ, पुत्र, पौत्र, भाई–बन्धु, सह्रद् तथा गुरुजनों के प्रेत कार्य सम्पन्न कराइये’ । वैशम्पायनजी कहते हैं–नरेश्वर ! संजय की यह करुणा जनक बात सुनकर बेटों और पोतों के वध से व्याकुल हुए दुर्जय राजा धृतराष्ट्र आँधी के उखाड़े हुए वृक्ष की भाँति पृथ्वी पर गिर पड़े । धृतराष्ट्र बोले–संजय ! मेरे पुत्र, मन्त्री और समस्त सुह्रद मारे गये । अब तो अवश्यही मैं इस पृथ्वी पर भटकता हुआ केवल दु:ख–ही–दु:ख भोगूँगा । जिसकी पाँखें काट ली गयी हों, उस जराजीर्ण पक्षी के समान बन्धु–बान्धवों से हीन हुए मुझ वृद्ध को अब इस जीवन से क्या प्रयोजन है । महामते ! मेरा राज्य छिन गया, बन्धु–बान्धव मारे गये और आँखे तो पहले से ही नष्ट हो चुकी थीं । अब मैं क्षीण किरणों वाले सुर्य के समान इस जगत् में प्रकाशित नहीं होऊँगा । मैंने सुह्रदों की बात नहीं मानी, जमदग्रिनन्दन परशुराम, देवर्षि नारद तथा श्रीकृष्ण द्वैपायन व्यास सबने हित की बात बतायी थी, पर मैंने किसी की नहीं सुनी । श्रीकृष्ण ने सारी सभा के बीचमें मेरे भले के लियेकहा था–‘राजन् ! वैर बढ़ाने से आपकोक्या लाभ है ? अपने पुत्रों को रोकिये’। उनकी उस बात को न मानकर आज मैं अत्यन्त संतप्त हो रहा हूँ । मेरी बुद्धि बिगड़ गयी थी ।