"महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 32 श्लोक 18-26": अवतरणों में अंतर

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द्वात्रिंशो (32) अध्‍याय: आश्वमेधिक पर्व (अनुगीता पर्व)

महाभारत: आश्वमेधिक पर्व: द्वात्रिंश अध्याय: श्लोक 18-26 का हिन्दी अनुवाद


मैं अपनी नासिका में पहुँची हुई सुगन्ध को भी अपने सुख के लिये नहीं ग्रहण करना चाहता। इसलिये मैंने पृथ्वी को जीत लिया है और वह सदा ही मेरे वश में रहती है। मुख में पड़े हुए रसों का भी मैं अपनी तृप्ति के लिये नहीं आस्वादन करता चाहता, इसलिये जलतत्त्वर पर भी मैं विजय पा चुका हूँ और वह सदा मेरे अधीन रहता है। मैं नेत्र के विषयभूत रूप और ज्योति का अपने सुख के लिये अनुभव नहीं करना चाहता, इसलिये मैंने तेज को जीत लिया है और वह सदा मेरे अधीन रहता है। तथा मैं त्वचा के संसर्ग से प्राप्त हुए स्पर्शजनित सुखों को अपने लिये नहीं चाहता, अत: मेरे द्वारा जीता हुआ वायु सदा मेरे वश में रहता है। मैं कानों में पड़े हुए शब्दों को भी अपने सुख के लिये नहीं ग्रहण करना चाहता, इसलिये वे मेरे द्वारा जीते हुए शब्द सदा मेरे अधीन रहते हैं। मैं मन में आये हुए मन्तव्य विषयों का भी अपने सुध के लिये अनुभव करना नहीं चाहता, इसलिये मेरे द्वारा जीता हुआ मन सदा मेरे वश में रहता है। मेरे समस्त कार्यों का आरम्भ देवता, पितर, भूत और अतिथियों के निमित्त होता है। जनक की ये बातें सुनकर वह ब्राह्मण हँसा और फिर कहने लगा- ‘महाराज! आपको मालूम होना चाहिये कि मैं धर्म हूँ और आपकी परीक्षा लेने के लिये ब्राह्मण का रूप धारण करके यहाँ आया हूँ। ‘अब मुझे निश्चय हो गया कि संसार में सत्त्वगुण रूप नेमिसे घिरे हुए और कभी पीछे की ओर न लौटने वाले इस ब्रह्म प्राप्तिरूप दुर्निवार चक्र का संचालन करने वाले एकमात्र आप ही हैं’।

इस प्रकार श्रीमहाभारत आश्वमेधिक पर्व के अन्तर्गत अनुगीतापर्व में ब्राह्मण गीताविषयक बत्तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।













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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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