"महाभारत आश्‍वमेधिक पर्व अध्याय 81 श्लोक 16-32": अवतरणों में अंतर

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एकोशीतितम (81) अध्याय: आश्‍वमेधिक पर्व (अनुगीता पर्व)

महाभारत: आश्‍वमेधिक पर्व: एकोशीतितम अध्याय: श्लोक 16-32 का हिन्दी अनुवाद

वे तत्‍काल वसुओं के पास जाकर उन्‍हें बारंबार प्रसन्‍न करके आप के लिये उनसे बारंबार क्षमा – याचना करने लगे । तब वसुगण उनसे इस प्रकार बोले-महाभाग नागराज ! मणिपुर का नवयुवक राजा बभ्रुवाहन अर्जुन का पुत्र है । वह युद्ध–भूमि में खड़ा होकर अपने बाणों द्वारा जब उन्‍हें पृथ्‍वी पर गिरा देगा, तब अर्जुन हमारे शाप से मुक्‍त हो जायंगे। अच्‍छा अब जाओ वसुओं के ऐसा कहने पर मेरे पिता ने आकर मुझसे यह बात बतायी। इसे सुनकर मैंने इसी के अनुसार चेष्‍टा की है और आपको उस शाप से छुटकारा दिलाया है। प्राणनाथ ! देवराज इन्‍द्र भी आपको युद्ध में परास्‍त नहीं कर सकते, पुत्र तो अपना आत्‍मा ही है, इसीलियं इसके हाथ से यहां आपकी पराजय हुई है। प्रभो ! मैं समझती हूं कि इसमें मेरा कोई दोष नहीं है । अथवा आपकी क्‍या धारणा है ? क्‍या यह युद्ध कराकर मैंने कोई अपराध किया है ? उलूपी के ऐसा कहने पर अर्जुन का चित्‍त प्रसन्‍न हो गया उन्‍होंने कहा-देवि ! तुमने जो यह कार्य किया है, यह सब मुझे अत्‍यन्‍त प्रिय है । यों कहकर अर्जुन ने चित्रांगदा तथा उलूपी के सुनते हुए अपने पुत्र मणिपुर नरेश बभ्रुवाहन से कहा-नरेश्‍वर ! आगामी चैत्र मास की पूर्णिमा को महाराज युधिष्‍ठिर के यज्ञ का आरम्‍भ होगा । उसमें तुम अपनी इन दोंनो माताओं और मन्‍त्रियों के साथ अवश्‍य आना। अर्जुन के ऐसा कहने पर बुद्धिमान राजा बभ्रुवाहन ने नेत्रों में आसूं भरकर पिता से इस प्रकार कहा- धर्मज्ञ ! आपकी आज्ञा से मैं अश्‍वमेध महायज्ञ में अवश्‍य उपस्‍थित होऊंगा और ब्राह्मणों को भोजन परोसने का काम करूंगा। इस समय आपसे एक प्रार्थना है – धर्मज्ञ ! आज मुझ पर कृपा करनेके लिये अपनी इन दोंनो धर्मपत्‍नियों के साथ इस नगर में प्रवेश कीजिये । इस विषय में आपको कोई अन्‍यथा विचार नहीं करना चाहिये। प्रभो ! विजयी वीरों में श्रेष्‍ठ ! यहां भी आपका ही घर है । अपने उस घर में एक रात सुखपूर्वक निवास करके कल सबेरे फिर घोड़े के पीछे – पीछे जाइयेगा। पुत्र के ऐसा कहने पर कुन्‍ती नन्‍दन कपिध्‍वज अर्जुन ने मुसकराते हुए चित्रांगदा कुमार से कहा- महाबाहो ! यह तो तुम जानते ही हो कि मैं दीक्षा ग्रहण करके विशेष नियमों के पालन पूर्वक विचर रहा हूं । अत: विशाल लोचन ! जब तक यह दीक्षा पूर्ण नहीं हो जाती तब तक मैं तुम्‍हारे नगर में प्रवेश नहीं करूंगा। नरश्रेष्‍ठ ! यह यज्ञ का घोड़ा अपनी इच्‍छा के अनुसार चलता है ( इसे कहीं भी रोकने का नियम नहीं है); अत: तुम्‍हा रा कल्‍याण हो। मैं अब जाऊंगा। इस समय मेरे ठहरने के लिये कोई स्‍थान नहीं है। तदनन्‍तर वहां बभ्रुवाहन ने भरतवंश के श्रेष्‍ठ पुरुष इन्‍द्रकुमार अर्जुन की विधिवत पूजा की और वे अपनी दोनों भार्याओं की अनुमति लेकर वहां से चल दिये।

इस प्रकार श्रीमहाभारत के आश्‍वमेधिक पर्व के अन्‍तर्गत अनुगीता पर्व में अश्‍व का अनुसारण विषयक इक्‍यासीवां अध्‍याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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