"महाभारत वन पर्व अध्याय 11 श्लोक 56-75": अवतरणों में अंतर

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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: वन पर्व: एकादश अध्याय: श्लोक 56-75 का हिन्दी अनुवाद</div>
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: वन पर्व: एकादश अध्याय: श्लोक 56-75 का हिन्दी अनुवाद</div>


उन्होंने अमर्ष में भरकर सहसा आक्रमण करके दोनों भुजाओं से उस राक्षस को उसी तरह पकड़ लिया, जैसे मतवाला गजराज गण्डस्थल से मद की धारा बहाने वाले दूसरे हाथी से भिड़ जाता है। उस बलवान राक्षस ने भी [[भीम|भीमसेन]] को दोनों भुजाओं से पकड़ लिया; तब बलवानों में श्रेष्ठ भीमसेन ने उसे बलपूर्वक दूर फेंक दिया। युद्ध में उन दोनों बलवानों की भुजाओं की रगड़ से बाँस के फटने के समान भयंकर शब्द हो रहा था। जैसे प्रचण्ड वायु अपने वेग से वृक्ष को झकझोर देती है, उसी प्रकार भीमसेन ने बलपूर्वक उछलकर उसकी कमर पकड़ ली और उस राक्षस को बड़े वेग से घुमाना आरम्भ किया। बलवान भीम की पकड़ में आकर वह दुर्बल राक्षस अपनी शक्ति के अनुसार उनसे छूटने की चेष्टा करने लगा। उसने भी पाण्डुनन्दन भीमसेन को इधर-उधर खींचा। तदनन्तर उसे थका हुआ देख भीमसेन ने अपनी दोनों भुजाओं से उसी तरह कस लिया,जैसे पशुओं को डोरी से बांध देते हैं। राक्षस किर्मीर फूटे हुए नगाड़े की-सी  आवाज में बड़े जोर-जोर से चीत्कार करने और छटपटाने लगा। बलवान भीम उसे देर तक घुमाते रहे, इससे वह मूर्च्छित हो गया। उस राक्षस को विषाद में डूबा हुआ जान पाण्डुनन्दन भीम ने दोनों भुजाओं से वेग पूर्वक दबाते हुए पशु की तरह उसे मारना आरम्भ किया। भीम ने उस राक्षस के कटि प्रदेश को अपने घुटने से दबाकर दोनों हाथों से उसका गला मरोड़ दिया। किर्मीर का सारा अंग जर्जर हो गया और उसकी आँखें घूमने लगीं, इससे वह और भी भयंकर प्रतीत होता था। भीम ने उसी अवस्था में उसे पृथ्वी पर घुमाया ओैर यह बात कही-- ‘ओ पापी ! अब तू यमलोक में जाकर भी [[हिडिम्ब]] और [[बकासुर]] के आँसू न पोंछ सकेगा।' ऐसा कहकर क्रोध से भरे ह्रदय वाले नरवीर भीमसेन ने उस राक्षस को,जिसके वस्त्र और आभूषण खिसककर इधर-उधर गिर गये थे और चित्त भ्रान्त हो रहा था, प्राण निकल जाने पर छोड़ दिया। उस राक्षस का रंग-रूप मेघ के समान काला था। उसके मारे जाने पर राजकुमार पाण्डव बड़े प्रसन्न हुए और भीमसेन के अनेक गुणों की  प्रशंसा करते हुए [[द्रौपदी]] को आगे करके वहाँ से द्वैतवन की की ओर चल दिये।
उन्होंने अमर्ष में भरकर सहसा आक्रमण करके दोनों भुजाओं से उस राक्षस को उसी तरह पकड़ लिया, जैसे मतवाला गजराज गण्डस्थल से मद की धारा बहाने वाले दूसरे हाथी से भिड़ जाता है। उस बलवान राक्षस ने भी [[भीम|भीमसेन]] को दोनों भुजाओं से पकड़ लिया; तब बलवानों में श्रेष्ठ भीमसेन ने उसे बलपूर्वक दूर फेंक दिया। युद्ध में उन दोनों बलवानों की भुजाओं की रगड़ से बाँस के फटने के समान भयंकर शब्द हो रहा था। जैसे प्रचण्ड वायु अपने वेग से वृक्ष को झकझोर देती है, उसी प्रकार भीमसेन ने बलपूर्वक उछलकर उसकी कमर पकड़ ली और उस राक्षस को बड़े वेग से घुमाना आरम्भ किया। बलवान भीम की पकड़ में आकर वह दुर्बल राक्षस अपनी शक्ति के अनुसार उनसे छूटने की चेष्टा करने लगा। उसने भी पाण्डुनन्दन भीमसेन को इधर-उधर खींचा। तदनन्तर उसे थका हुआ देख भीमसेन ने अपनी दोनों भुजाओं से उसी तरह कस लिया,जैसे पशुओं को डोरी से बांध देते हैं। राक्षस किर्मीर फूटे हुए नगाड़े की-सी  आवाज में बड़े जोर-जोर से चीत्कार करने और छटपटाने लगा। बलवान भीम उसे देर तक घुमाते रहे, इससे वह मूर्च्छित हो गया। उस राक्षस को विषाद में डूबा हुआ जान पाण्डुनन्दन भीम ने दोनों भुजाओं से वेग पूर्वक दबाते हुए पशु की तरह उसे मारना आरम्भ किया। भीम ने उस राक्षस के कटि प्रदेश को अपने घुटने से दबाकर दोनों हाथों से उसका गला मरोड़ दिया। किर्मीर का सारा अंग जर्जर हो गया और उसकी आँखें घूमने लगीं, इससे वह और भी भयंकर प्रतीत होता था। भीम ने उसी अवस्था में उसे पृथ्वी पर घुमाया ओैर यह बात कही-- ‘ओ पापी ! अब तू यमलोक में जाकर भी [[हिडिम्ब]] और [[बकासुर]] के आँसू न पोंछ सकेगा।' ऐसा कहकर क्रोध से भरे हृदय वाले नरवीर भीमसेन ने उस राक्षस को,जिसके वस्त्र और आभूषण खिसककर इधर-उधर गिर गये थे और चित्त भ्रान्त हो रहा था, प्राण निकल जाने पर छोड़ दिया। उस राक्षस का रंग-रूप मेघ के समान काला था। उसके मारे जाने पर राजकुमार पाण्डव बड़े प्रसन्न हुए और भीमसेन के अनेक गुणों की  प्रशंसा करते हुए [[द्रौपदी]] को आगे करके वहाँ से द्वैतवन की की ओर चल दिये।


'''विदुरजी कहते हैं''' - नरेश्वर ! इस प्रकार धर्मराज [[युधिष्ठिर]] की आज्ञा से भीमसेन ने किर्मीर को युद्ध में मार गिराया। तदनन्तर विजयी एवं धर्मज्ञ पाण्डु कुमार उस वन को निष्कण्टक( राक्षसरहित ) बनाकर द्रौपदी के साथ वहाँ रहने लगी। भरतकुल के भूषण रूपी उन सभी वीरों ने द्रौपदी को आश्वासन देकर प्रसन्नचित्त हो प्रेमपूर्वक भीमसेन की सराहना की।  भीमसनेन के बाहुबल से पिसकर जब वह राक्षस नष्ट हो गया, तब उस अकण्टक एवं कल्याणमय वन में उन सभी वीरों ने प्रवेश लिया। मैंने महान वन में जाते और आते समय रास्ते में मरकर गिरे हुए उस भयानक एवं दुष्टात्मा राक्षस के शव को अपनी आँखों देखा था, जो भीमसेन के बल से मारा गया था।
'''विदुरजी कहते हैं''' - नरेश्वर ! इस प्रकार धर्मराज [[युधिष्ठिर]] की आज्ञा से भीमसेन ने किर्मीर को युद्ध में मार गिराया। तदनन्तर विजयी एवं धर्मज्ञ पाण्डु कुमार उस वन को निष्कण्टक( राक्षसरहित ) बनाकर द्रौपदी के साथ वहाँ रहने लगी। भरतकुल के भूषण रूपी उन सभी वीरों ने द्रौपदी को आश्वासन देकर प्रसन्नचित्त हो प्रेमपूर्वक भीमसेन की सराहना की।  भीमसनेन के बाहुबल से पिसकर जब वह राक्षस नष्ट हो गया, तब उस अकण्टक एवं कल्याणमय वन में उन सभी वीरों ने प्रवेश लिया। मैंने महान वन में जाते और आते समय रास्ते में मरकर गिरे हुए उस भयानक एवं दुष्टात्मा राक्षस के शव को अपनी आँखों देखा था, जो भीमसेन के बल से मारा गया था।

09:53, 24 फ़रवरी 2017 का अवतरण

एकादश (11) अध्‍याय: वन पर्व (अरण्‍यपर्व)

महाभारत: वन पर्व: एकादश अध्याय: श्लोक 56-75 का हिन्दी अनुवाद

उन्होंने अमर्ष में भरकर सहसा आक्रमण करके दोनों भुजाओं से उस राक्षस को उसी तरह पकड़ लिया, जैसे मतवाला गजराज गण्डस्थल से मद की धारा बहाने वाले दूसरे हाथी से भिड़ जाता है। उस बलवान राक्षस ने भी भीमसेन को दोनों भुजाओं से पकड़ लिया; तब बलवानों में श्रेष्ठ भीमसेन ने उसे बलपूर्वक दूर फेंक दिया। युद्ध में उन दोनों बलवानों की भुजाओं की रगड़ से बाँस के फटने के समान भयंकर शब्द हो रहा था। जैसे प्रचण्ड वायु अपने वेग से वृक्ष को झकझोर देती है, उसी प्रकार भीमसेन ने बलपूर्वक उछलकर उसकी कमर पकड़ ली और उस राक्षस को बड़े वेग से घुमाना आरम्भ किया। बलवान भीम की पकड़ में आकर वह दुर्बल राक्षस अपनी शक्ति के अनुसार उनसे छूटने की चेष्टा करने लगा। उसने भी पाण्डुनन्दन भीमसेन को इधर-उधर खींचा। तदनन्तर उसे थका हुआ देख भीमसेन ने अपनी दोनों भुजाओं से उसी तरह कस लिया,जैसे पशुओं को डोरी से बांध देते हैं। राक्षस किर्मीर फूटे हुए नगाड़े की-सी आवाज में बड़े जोर-जोर से चीत्कार करने और छटपटाने लगा। बलवान भीम उसे देर तक घुमाते रहे, इससे वह मूर्च्छित हो गया। उस राक्षस को विषाद में डूबा हुआ जान पाण्डुनन्दन भीम ने दोनों भुजाओं से वेग पूर्वक दबाते हुए पशु की तरह उसे मारना आरम्भ किया। भीम ने उस राक्षस के कटि प्रदेश को अपने घुटने से दबाकर दोनों हाथों से उसका गला मरोड़ दिया। किर्मीर का सारा अंग जर्जर हो गया और उसकी आँखें घूमने लगीं, इससे वह और भी भयंकर प्रतीत होता था। भीम ने उसी अवस्था में उसे पृथ्वी पर घुमाया ओैर यह बात कही-- ‘ओ पापी ! अब तू यमलोक में जाकर भी हिडिम्ब और बकासुर के आँसू न पोंछ सकेगा।' ऐसा कहकर क्रोध से भरे हृदय वाले नरवीर भीमसेन ने उस राक्षस को,जिसके वस्त्र और आभूषण खिसककर इधर-उधर गिर गये थे और चित्त भ्रान्त हो रहा था, प्राण निकल जाने पर छोड़ दिया। उस राक्षस का रंग-रूप मेघ के समान काला था। उसके मारे जाने पर राजकुमार पाण्डव बड़े प्रसन्न हुए और भीमसेन के अनेक गुणों की प्रशंसा करते हुए द्रौपदी को आगे करके वहाँ से द्वैतवन की की ओर चल दिये।

विदुरजी कहते हैं - नरेश्वर ! इस प्रकार धर्मराज युधिष्ठिर की आज्ञा से भीमसेन ने किर्मीर को युद्ध में मार गिराया। तदनन्तर विजयी एवं धर्मज्ञ पाण्डु कुमार उस वन को निष्कण्टक( राक्षसरहित ) बनाकर द्रौपदी के साथ वहाँ रहने लगी। भरतकुल के भूषण रूपी उन सभी वीरों ने द्रौपदी को आश्वासन देकर प्रसन्नचित्त हो प्रेमपूर्वक भीमसेन की सराहना की। भीमसनेन के बाहुबल से पिसकर जब वह राक्षस नष्ट हो गया, तब उस अकण्टक एवं कल्याणमय वन में उन सभी वीरों ने प्रवेश लिया। मैंने महान वन में जाते और आते समय रास्ते में मरकर गिरे हुए उस भयानक एवं दुष्टात्मा राक्षस के शव को अपनी आँखों देखा था, जो भीमसेन के बल से मारा गया था। भारत ! मैंने वन में उन ब्राह्मणों के मुख से, जो वहाँ आये हुए थे,भीमसेन के इस महान कर्म का वर्णन सुना।

वैशम्पयनजी कहते है --जनमेजय ! इस प्रकार राक्षसप्रवर किर्मीर का युद्ध मारा जाना सुनकर राजा धृतराष्ट्र किसी भारी चिन्ता में डूब और शोकातुर मनुष्य की भाँति लम्बी साँस खींचने लगा।

इस प्रकार श्रीमहाभारत के वनपर्व के अंर्तगत किर्मीरवध पर्व में विदुरवाक्यसम्बन्धी ग्यारहवाँ अध्याय पूरा हुआ।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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