"महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 20 श्लोक 17-28": अवतरणों में अंतर

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‘प्राणों का आयतन (आधार) होने के कारण उसे विद्वान पुरुष उदान कहते हैं। इसलिये वेदवादी मुझ में स्थित तप का निश्चय करते हैं।
‘प्राणों का आयतन (आधार) होने के कारण उसे विद्वान् पुरुष उदान कहते हैं। इसलिये वेदवादी मुझ में स्थित तप का निश्चय करते हैं।
‘एक दूसरे के सहारे रने वाले तथा सबके शरीरों में संचार करने वाले उन पाँचों प्राणवायुओं के मध्य भाग में जो समान वायु का स्थान नाभिमण्डल है, उसके बीच में स्थित हुआ वैश्वानर अग्रि सात रूपों में प्रकाशमान है।
‘एक दूसरे के सहारे रने वाले तथा सबके शरीरों में संचार करने वाले उन पाँचों प्राणवायुओं के मध्य भाग में जो समान वायु का स्थान नाभिमण्डल है, उसके बीच में स्थित हुआ वैश्वानर अग्रि सात रूपों में प्रकाशमान है।
‘घ्राण (नासिका), जिह्वा, नेत्र, त्वचा और पाँचवाँ कान एवं मन तथा बुद्धि- ये उस वैश्वानर अग्रि की सात जिह्वाएँ हैं। सूँघने योज्य गन्ध, दर्शनीय रूप, पीने योज्य रस, स्पर्श करने योज्य वस्तु, सुनने योगय शब्द, मन के द्वारा मनन करने और बुद्धि के द्वारा समझने योज्य विषय- ये सात मुझ वैश्वानर की सतिधाएँ हैं।
‘घ्राण (नासिका), जिह्वा, नेत्र, त्वचा और पाँचवाँ कान एवं मन तथा बुद्धि- ये उस वैश्वानर अग्रि की सात जिह्वाएँ हैं। सूँघने योज्य गन्ध, दर्शनीय रूप, पीने योज्य रस, स्पर्श करने योज्य वस्तु, सुनने योगय शब्द, मन के द्वारा मनन करने और बुद्धि के द्वारा समझने योज्य विषय- ये सात मुझ वैश्वानर की सतिधाएँ हैं।
‘सूँघने वाला, खाने वाला, देखने वाला, स्पर्श करने वाला, पाँचवाँ श्रवण करने वाला एवं मनन करने वाला और समझने वाला- ये सात श्रेष्ठ ऋत्विज हैं।
‘सूँघने वाला, खाने वाला, देखने वाला, स्पर्श करने वाला, पाँचवाँ श्रवण करने वाला एवं मनन करने वाला और समझने वाला- ये सात श्रेष्ठ ऋत्विज हैं।
‘सुभगे! सूँघने योज्य, पीने योज्य, देखने योज्य, स्पर्श करने योज्य, सुनने, मनन करने तथा समझने योज्य विषय- इन सबके ऊपर तुम सदा दृष्टिपात करो (इनमें हविष्य बुद्धि करो)।
‘सुभगे! सूँघने योज्य, पीने योज्य, देखने योज्य, स्पर्श करने योज्य, सुनने, मनन करने तथा समझने योज्य विषय- इन सबके ऊपर तुम सदा दृष्टिपात करो (इनमें हविष्य बुद्धि करो)।
‘पूर्वोक्त सात होता उक्त सात हविष्यों का सात रूपों में विभक्त हुए वैश्वानर में भली भाँति हवन करके (अर्थात् विषयों की ओर से आसक्ति हटाकर) विद्वान पुरुष अपने तन्मात्रा आदि योनियों में शब्दादि विषयों को उत्पन्न करते हैं।
‘पूर्वोक्त सात होता उक्त सात हविष्यों का सात रूपों में विभक्त हुए वैश्वानर में भली भाँति हवन करके (अर्थात् विषयों की ओर से आसक्ति हटाकर) विद्वान् पुरुष अपने तन्मात्रा आदि योनियों में शब्दादि विषयों को उत्पन्न करते हैं।
‘पृथ्वी, वायु, आकाश, जल, तेज, मन और बुद्धि- ये सात योनि कहलाते हैं।
‘पृथ्वी, वायु, आकाश, जल, तेज, मन और बुद्धि- ये सात योनि कहलाते हैं।
‘इनके जो समस्त गुण हैं, वे हविष्य रूप हैं। जो अग्रिजनित गुण (बुद्धिवृत्ति) में प्रवेश करते हैं। वे अन्त: करण में संस्कार रूप से रहकर अपनी योनियों में जन्म लेते हैं।
‘इनके जो समस्त गुण हैं, वे हविष्य रूप हैं। जो अग्रिजनित गुण (बुद्धिवृत्ति) में प्रवेश करते हैं। वे अन्त: करण में संस्कार रूप से रहकर अपनी योनियों में जन्म लेते हैं।

14:31, 6 जुलाई 2017 के समय का अवतरण

विंश (20) अध्‍याय: आश्वमेधिक पर्व (अनुगीता पर्व)

महाभारत: आश्वमेधिक पर्व: विंश ध्याय:: श्लोक 17-28 का हिन्दी अनुवाद


‘प्राणों का आयतन (आधार) होने के कारण उसे विद्वान् पुरुष उदान कहते हैं। इसलिये वेदवादी मुझ में स्थित तप का निश्चय करते हैं। ‘एक दूसरे के सहारे रने वाले तथा सबके शरीरों में संचार करने वाले उन पाँचों प्राणवायुओं के मध्य भाग में जो समान वायु का स्थान नाभिमण्डल है, उसके बीच में स्थित हुआ वैश्वानर अग्रि सात रूपों में प्रकाशमान है। ‘घ्राण (नासिका), जिह्वा, नेत्र, त्वचा और पाँचवाँ कान एवं मन तथा बुद्धि- ये उस वैश्वानर अग्रि की सात जिह्वाएँ हैं। सूँघने योज्य गन्ध, दर्शनीय रूप, पीने योज्य रस, स्पर्श करने योज्य वस्तु, सुनने योगय शब्द, मन के द्वारा मनन करने और बुद्धि के द्वारा समझने योज्य विषय- ये सात मुझ वैश्वानर की सतिधाएँ हैं। ‘सूँघने वाला, खाने वाला, देखने वाला, स्पर्श करने वाला, पाँचवाँ श्रवण करने वाला एवं मनन करने वाला और समझने वाला- ये सात श्रेष्ठ ऋत्विज हैं। ‘सुभगे! सूँघने योज्य, पीने योज्य, देखने योज्य, स्पर्श करने योज्य, सुनने, मनन करने तथा समझने योज्य विषय- इन सबके ऊपर तुम सदा दृष्टिपात करो (इनमें हविष्य बुद्धि करो)। ‘पूर्वोक्त सात होता उक्त सात हविष्यों का सात रूपों में विभक्त हुए वैश्वानर में भली भाँति हवन करके (अर्थात् विषयों की ओर से आसक्ति हटाकर) विद्वान् पुरुष अपने तन्मात्रा आदि योनियों में शब्दादि विषयों को उत्पन्न करते हैं। ‘पृथ्वी, वायु, आकाश, जल, तेज, मन और बुद्धि- ये सात योनि कहलाते हैं। ‘इनके जो समस्त गुण हैं, वे हविष्य रूप हैं। जो अग्रिजनित गुण (बुद्धिवृत्ति) में प्रवेश करते हैं। वे अन्त: करण में संस्कार रूप से रहकर अपनी योनियों में जन्म लेते हैं। ‘वे प्रलय काल में अन्त:करण में ही अवरुद्ध रहते और भूतों की सृष्टि के समय वहीं से प्रकट होते हैं। वहीं से गन्ध और वहीं से रस की उत्पत्ति होती है। ‘वहीं से रूप, स्पर्श और शब्द का प्राकट्य होता हैं। संशय का जन्म भी वहीं होता है और निश्चयात्मि का बुद्धि भी वहीं पैदा होती है। यह सात प्रकार का जन्म माना गया है। ‘असी प्रकार से पुरातन ऋषियों ने श्रुति के अनुसार घ्राण आदि का रूप ग्रहण किया है। ज्ञाता, ज्ञान, ज्ञेय- इन तीन आहुतियों से समस्त लोक परिपूर्ण हैं। वे सभी लोक आत्मज्योति से परिपूर्ण होते हैं’।

इस प्रकार श्रीमहाभारत आश्वमेधिक पर्व के अन्तर्गत अनुगीता पर्व में ब्राह्मणगीता विषयक बीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।




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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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