"महाभारत द्रोण पर्व अध्याय 51 श्लोक 1-21": अवतरणों में अंतर
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संजय कहते है – राजन् ! महापराक्रमी रथयूथपति सुभद्राकुमार अभिमन्यु के मारे जाने पर समस्त पाण्डव महारथ रथ और कवच का त्याग कर और धनुष को नीचे डालकर राजा युधिष्ठिर को चारो ओर से घेरकर उनके पास बैठ गये । उन सबका मन सुभद्राकुमार अभिमन्यु में ही लगा था और वे उसी युद्ध का चिन्तन कर रहे थे । उस समय राजा युधिष्ठिर अपने भाई के वीर पुत्र महारथी अभिमन्यु के मारे जाने के कारण अत्यन्त दुखी हो विलाप करने लगे । | संजय कहते है – राजन् ! महापराक्रमी रथयूथपति सुभद्राकुमार अभिमन्यु के मारे जाने पर समस्त पाण्डव महारथ रथ और कवच का त्याग कर और धनुष को नीचे डालकर राजा युधिष्ठिर को चारो ओर से घेरकर उनके पास बैठ गये । उन सबका मन सुभद्राकुमार अभिमन्यु में ही लगा था और वे उसी युद्ध का चिन्तन कर रहे थे । उस समय राजा युधिष्ठिर अपने भाई के वीर पुत्र महारथी अभिमन्यु के मारे जाने के कारण अत्यन्त दुखी हो विलाप करने लगे । | ||
अहो ! कृपाचार्य, शल्य, राजा दुर्योधन, द्रोणाचार्य, महाधनुर्धर अश्वत्थामा तथा अन्य महारथियों को जीतकर, मेरा प्रिय करने की इच्छा से द्रोणाचार्य के निर्बाध सैन्य व्यूह को विनष्ट करके वीर शत्रु समूहों का संहार करने के पश्चात् यह पुत्र अभिमन्यु मार गिराया गया और अब रणक्षेत्र सो रहा है ! जो अस्त्रविद्या के विद्वान, युद्धकुशल, कुल-शील और गुणों से युक्त, शूरवीर तथा अपने पराक्रम के लिये प्रसिद्ध थे, उन महाधनुर्धर महारथियों को परास्त करके देवताओं के लिये भी जिसका भेदन करना असम्भव है तथा हमने जिसे पहले कभी देखा तक नही था, उस द्रोण निर्मित चक्रव्यूह का भेदन करके चक्रधारी श्रीकृष्ण का प्यारा भानजा वह अभिमन्यु के भीतर उसी प्रकार प्रवेश कर गया, जैसे सिंह गौओं के झुडं में घुस जाता है । उसने रणक्षेत्र में प्रमुख-प्रमुख शत्रुवीरो का वध करते हुए अदभूत रणक्रीडा की थी । युद्ध मे उसके सामने जानेपर शत्रुपक्ष अस्त्रविद्या विशारद युद्ध दुर्मद और | अहो ! कृपाचार्य, शल्य, राजा दुर्योधन, द्रोणाचार्य, महाधनुर्धर अश्वत्थामा तथा अन्य महारथियों को जीतकर, मेरा प्रिय करने की इच्छा से द्रोणाचार्य के निर्बाध सैन्य व्यूह को विनष्ट करके वीर शत्रु समूहों का संहार करने के पश्चात् यह पुत्र अभिमन्यु मार गिराया गया और अब रणक्षेत्र सो रहा है ! जो अस्त्रविद्या के विद्वान, युद्धकुशल, कुल-शील और गुणों से युक्त, शूरवीर तथा अपने पराक्रम के लिये प्रसिद्ध थे, उन महाधनुर्धर महारथियों को परास्त करके देवताओं के लिये भी जिसका भेदन करना असम्भव है तथा हमने जिसे पहले कभी देखा तक नही था, उस द्रोण निर्मित चक्रव्यूह का भेदन करके चक्रधारी श्रीकृष्ण का प्यारा भानजा वह अभिमन्यु के भीतर उसी प्रकार प्रवेश कर गया, जैसे सिंह गौओं के झुडं में घुस जाता है । उसने रणक्षेत्र में प्रमुख-प्रमुख शत्रुवीरो का वध करते हुए अदभूत रणक्रीडा की थी । युद्ध मे उसके सामने जानेपर शत्रुपक्ष अस्त्रविद्या विशारद युद्ध दुर्मद और महान् धनुर्धर शूरवीर भी हतोत्साह हो भाग खडे होते थे । जिस वीर अर्जुनकुमार ने युद्धस्थल में हमारे अत्यन्त शत्रु दु:शासन को सामने आनेपर शीघ्र ही अपने बाणों से अचेत करके भगा दिया, वही महासागर के समान दुस्तर द्रोणसेना को पार करके भी दु:शासन पुत्र के पास जाकरयमलोक मे पहॅुच गया । सुभद्राकुमार अभिमन्यु के मार दिये जानेपरअब मैं कुन्तीकुमार अर्जुन की ओर ऑख उठाकर कैसे देखॅूगा ? अथवा अपनेप्रियपुत्र को अब नही देख पानेवाली महाभागा सुभद्रा के सामने कैसे जाऊँगा ? हाय ! हमलोग भगवान कृष्ण और अर्जुन दोनों के सामने किस प्रकार अनर्थपूर्ण असंगत ओर अनुचित वृतान्त कह सकेंगे । मैने ही अपने प्रिय कार्य की इच्छा, विजय की अभिलाषा रखकर सुभद्रा, श्रीकृष्ण ओर अर्जुन का यह अप्रिय कार्य किया है । लोभी मनुष्य किसी कार्य के दोष को नही समझता । वह लोभ और मोह के वशीभूत होकर उसमें प्रवृप्त् हो जाता है । मैन मधु के समान मधुर लगने वाले राज्य को पाने की लालसा रखकर यह नही देखा इसमे ऐसे भयंकर पतन का भय है । हाय ! जिस सुकुमार बालक को भोजन और शयन करने, सवारीपर चलने तथा भूषण, वस्त्र पहनने में आगे रखना चाहिये था, उसे हमलोगों ने युद्ध मे आगे कर दिया । वह तरूण कुमार अभी बालक था । युद्ध की कला में पूरा प्रवीण नहीं हुआ था । फिर गहन वन में फॅसे हुए सुन्दर अश्व की भॉति वह उस विषम संग्राम में कैसे सकुशल रह सकता था । यदि हमलोग अभिमन्युके साथ ही उस रणक्षेत्र में शयन न कर सके तो अब क्रोध से उतेजित हुए अर्जुन के शोकाकुल नेत्रों से हमे अवश्य दग्ध होना पड़ेगा । जो लोभरहित, बुद्धिमान्, लज्जाशील, क्षमावान्, रूपवान, बलवान, सुन्दर शरीरधारी, दूसरों को मान देनेवाले, प्रीतिपात्र, वीर तथा सत्यपराक्रमी है, जिनके कर्मो की देवता लोग भी प्रंशसा करते है, जिनके कर्म सबल एवं महान् हैं, जिन पराक्रमी वीर ने निवात कवचों तथा कालकेय नामक दैत्यों का विनाश किया था, जिन्होने ऑखों की पलक मारते - मारते हिरण्यपुर निवासी इन्द्रशत्रु पौलोम नामक दानवों का उनके गणों सहित संहार कर डाला था तथा जो सामर्थ्यशाली अर्जुन अभय की इच्छा रखनेवाले शत्रुओं को भी अभय-दान देते हैं, उन्हीं के बलवान पुत्र की भी हमलोग रक्षा नही कर सके । अहो ! महाबली धृतराष्ट्र पुत्रों पर बड़ा भारी भय आ पहॅुचा है; क्योंकि अपने पुत्र के वध से कुपित हुए कुन्तीकुमार अर्जुन कौरवों को सोख लेंगे – उनका मूलोच्छेद कर डालेंगे । दुर्योधन नीच है । उसकेसहायक भी ओछे स्वभाव के हैं, अत: वह निश्चय ही (अर्जुन् के हाथों) अपने पक्ष का विनाश देखकर शोक से व्याकुल हो जीवन का परित्याग कर देगा । जिसके बल और पुरुषार्थ कही तुलना नही थी, देवेन्द्रकुमार अर्जुन के पुत्र इस अभिमन्यु को रणक्षेत्र में मारा गया देख अब मुझे विजय, राज्य, अमरत्व तथा देवलोक की प्राप्ति भी प्रसन्न नही कर सकती । | ||
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">इस प्रकार श्रीमहाभारतद्रोणपर्व के अन्तर्गत अभिमन्युवध पर्व में युधिष्ठिर प्रलाप विषयक इक्यावनवॉ अध्याय पूरा हुआ ।</div> | <div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">इस प्रकार श्रीमहाभारतद्रोणपर्व के अन्तर्गत अभिमन्युवध पर्व में युधिष्ठिर प्रलाप विषयक इक्यावनवॉ अध्याय पूरा हुआ ।</div> |
11:19, 1 अगस्त 2017 के समय का अवतरण
एकपञ्चाशतम (51) अध्याय: द्रोण पर्व ( द्रोणाभिषेक पर्व)
युधिष्ठिर का विलाप
संजय कहते है – राजन् ! महापराक्रमी रथयूथपति सुभद्राकुमार अभिमन्यु के मारे जाने पर समस्त पाण्डव महारथ रथ और कवच का त्याग कर और धनुष को नीचे डालकर राजा युधिष्ठिर को चारो ओर से घेरकर उनके पास बैठ गये । उन सबका मन सुभद्राकुमार अभिमन्यु में ही लगा था और वे उसी युद्ध का चिन्तन कर रहे थे । उस समय राजा युधिष्ठिर अपने भाई के वीर पुत्र महारथी अभिमन्यु के मारे जाने के कारण अत्यन्त दुखी हो विलाप करने लगे । अहो ! कृपाचार्य, शल्य, राजा दुर्योधन, द्रोणाचार्य, महाधनुर्धर अश्वत्थामा तथा अन्य महारथियों को जीतकर, मेरा प्रिय करने की इच्छा से द्रोणाचार्य के निर्बाध सैन्य व्यूह को विनष्ट करके वीर शत्रु समूहों का संहार करने के पश्चात् यह पुत्र अभिमन्यु मार गिराया गया और अब रणक्षेत्र सो रहा है ! जो अस्त्रविद्या के विद्वान, युद्धकुशल, कुल-शील और गुणों से युक्त, शूरवीर तथा अपने पराक्रम के लिये प्रसिद्ध थे, उन महाधनुर्धर महारथियों को परास्त करके देवताओं के लिये भी जिसका भेदन करना असम्भव है तथा हमने जिसे पहले कभी देखा तक नही था, उस द्रोण निर्मित चक्रव्यूह का भेदन करके चक्रधारी श्रीकृष्ण का प्यारा भानजा वह अभिमन्यु के भीतर उसी प्रकार प्रवेश कर गया, जैसे सिंह गौओं के झुडं में घुस जाता है । उसने रणक्षेत्र में प्रमुख-प्रमुख शत्रुवीरो का वध करते हुए अदभूत रणक्रीडा की थी । युद्ध मे उसके सामने जानेपर शत्रुपक्ष अस्त्रविद्या विशारद युद्ध दुर्मद और महान् धनुर्धर शूरवीर भी हतोत्साह हो भाग खडे होते थे । जिस वीर अर्जुनकुमार ने युद्धस्थल में हमारे अत्यन्त शत्रु दु:शासन को सामने आनेपर शीघ्र ही अपने बाणों से अचेत करके भगा दिया, वही महासागर के समान दुस्तर द्रोणसेना को पार करके भी दु:शासन पुत्र के पास जाकरयमलोक मे पहॅुच गया । सुभद्राकुमार अभिमन्यु के मार दिये जानेपरअब मैं कुन्तीकुमार अर्जुन की ओर ऑख उठाकर कैसे देखॅूगा ? अथवा अपनेप्रियपुत्र को अब नही देख पानेवाली महाभागा सुभद्रा के सामने कैसे जाऊँगा ? हाय ! हमलोग भगवान कृष्ण और अर्जुन दोनों के सामने किस प्रकार अनर्थपूर्ण असंगत ओर अनुचित वृतान्त कह सकेंगे । मैने ही अपने प्रिय कार्य की इच्छा, विजय की अभिलाषा रखकर सुभद्रा, श्रीकृष्ण ओर अर्जुन का यह अप्रिय कार्य किया है । लोभी मनुष्य किसी कार्य के दोष को नही समझता । वह लोभ और मोह के वशीभूत होकर उसमें प्रवृप्त् हो जाता है । मैन मधु के समान मधुर लगने वाले राज्य को पाने की लालसा रखकर यह नही देखा इसमे ऐसे भयंकर पतन का भय है । हाय ! जिस सुकुमार बालक को भोजन और शयन करने, सवारीपर चलने तथा भूषण, वस्त्र पहनने में आगे रखना चाहिये था, उसे हमलोगों ने युद्ध मे आगे कर दिया । वह तरूण कुमार अभी बालक था । युद्ध की कला में पूरा प्रवीण नहीं हुआ था । फिर गहन वन में फॅसे हुए सुन्दर अश्व की भॉति वह उस विषम संग्राम में कैसे सकुशल रह सकता था । यदि हमलोग अभिमन्युके साथ ही उस रणक्षेत्र में शयन न कर सके तो अब क्रोध से उतेजित हुए अर्जुन के शोकाकुल नेत्रों से हमे अवश्य दग्ध होना पड़ेगा । जो लोभरहित, बुद्धिमान्, लज्जाशील, क्षमावान्, रूपवान, बलवान, सुन्दर शरीरधारी, दूसरों को मान देनेवाले, प्रीतिपात्र, वीर तथा सत्यपराक्रमी है, जिनके कर्मो की देवता लोग भी प्रंशसा करते है, जिनके कर्म सबल एवं महान् हैं, जिन पराक्रमी वीर ने निवात कवचों तथा कालकेय नामक दैत्यों का विनाश किया था, जिन्होने ऑखों की पलक मारते - मारते हिरण्यपुर निवासी इन्द्रशत्रु पौलोम नामक दानवों का उनके गणों सहित संहार कर डाला था तथा जो सामर्थ्यशाली अर्जुन अभय की इच्छा रखनेवाले शत्रुओं को भी अभय-दान देते हैं, उन्हीं के बलवान पुत्र की भी हमलोग रक्षा नही कर सके । अहो ! महाबली धृतराष्ट्र पुत्रों पर बड़ा भारी भय आ पहॅुचा है; क्योंकि अपने पुत्र के वध से कुपित हुए कुन्तीकुमार अर्जुन कौरवों को सोख लेंगे – उनका मूलोच्छेद कर डालेंगे । दुर्योधन नीच है । उसकेसहायक भी ओछे स्वभाव के हैं, अत: वह निश्चय ही (अर्जुन् के हाथों) अपने पक्ष का विनाश देखकर शोक से व्याकुल हो जीवन का परित्याग कर देगा । जिसके बल और पुरुषार्थ कही तुलना नही थी, देवेन्द्रकुमार अर्जुन के पुत्र इस अभिमन्यु को रणक्षेत्र में मारा गया देख अब मुझे विजय, राज्य, अमरत्व तथा देवलोक की प्राप्ति भी प्रसन्न नही कर सकती ।
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