"महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 4 श्लोक 19-28": अवतरणों में अंतर
व्यवस्थापन (वार्ता | योगदान) छो (Text replacement - "विद्वान " to "विद्वान् ") |
व्यवस्थापन (वार्ता | योगदान) छो (Text replacement - " महान " to " महान् ") |
||
पंक्ति 3: | पंक्ति 3: | ||
उस धर्मात्मा करन्धम कुमार का नाम अविक्षित था। वह अपने शौर्य के द्वारा इन्द्र की समानता करता था। वह यज्ञशील, धर्मानुरागी, धैर्यवान और जितेन्द्रिय था। तेज में सूर्य, क्षमा में पृथ्वी, बुद्धि में बृहस्पति और सुस्थिरता में हिमवान पर्वत के समान माना जाता था। राजा अविक्षित मन, वीण, क्रिया, इन्द्रियसंयम और मनोहिग्रह के द्वारा प्रजाजनों का चित्त संतुष्ट किये रहते थे। उन प्रभावशाली नरेश ने विधिपूर्वक सौ अश्वमेध यज्ञों का अनुष्ठान किया था। साक्षात विद्वान् प्रभु, अंगिरा मुनि ने ही उनक यज्ञ कराया था। उन्हीं के पुत्र हुए महायशस्वी, चक्रवर्ती, धर्मज्ञ राजा मरुत्त। जो अपने गुणों के कारण पिता से भी बड़े-चढ़े थे। उनमें दस हजार हाथियों के समान बल था। वे साक्षात दूसरे विष्णु के समान जान पड़ेत थे।<br /> | उस धर्मात्मा करन्धम कुमार का नाम अविक्षित था। वह अपने शौर्य के द्वारा इन्द्र की समानता करता था। वह यज्ञशील, धर्मानुरागी, धैर्यवान और जितेन्द्रिय था। तेज में सूर्य, क्षमा में पृथ्वी, बुद्धि में बृहस्पति और सुस्थिरता में हिमवान पर्वत के समान माना जाता था। राजा अविक्षित मन, वीण, क्रिया, इन्द्रियसंयम और मनोहिग्रह के द्वारा प्रजाजनों का चित्त संतुष्ट किये रहते थे। उन प्रभावशाली नरेश ने विधिपूर्वक सौ अश्वमेध यज्ञों का अनुष्ठान किया था। साक्षात विद्वान् प्रभु, अंगिरा मुनि ने ही उनक यज्ञ कराया था। उन्हीं के पुत्र हुए महायशस्वी, चक्रवर्ती, धर्मज्ञ राजा मरुत्त। जो अपने गुणों के कारण पिता से भी बड़े-चढ़े थे। उनमें दस हजार हाथियों के समान बल था। वे साक्षात दूसरे विष्णु के समान जान पड़ेत थे।<br /> | ||
धर्मात्मा मरुत्त जब यज्ञ करने को उद्यत हुए, उस समय उन्होंने सहस्त्रों सोने के समुज्ज्वल पात्र बनवाये। हिमालय पर्वत के उत्तर भाग में मेरु पर्वत के निकट एक | धर्मात्मा मरुत्त जब यज्ञ करने को उद्यत हुए, उस समय उन्होंने सहस्त्रों सोने के समुज्ज्वल पात्र बनवाये। हिमालय पर्वत के उत्तर भाग में मेरु पर्वत के निकट एक महान् सुवर्णमय पर्वत है। उसी के समीप उन्होंने यज्ञशाला बनवायी और वहीं यज्ञ-कार्य आरम्भ किया। उनकी आज्ञा से अनेक सुनारों ने आकर सुवर्णमय कुण्ड, सोने के बर्तन, थाली और आसन (चौकी आदि) तैयार किये। उन सब वस्तुओं की गणना असम्भव है। जब सब सामग्री तैयार हो गयी, तब वहाँ धर्मात्मा, पृथ्वीपति राजा मरुत्त ने अन्य सब प्रजापालों के साथ विधिपूर्वक यज्ञ किया। | ||
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">इस प्रकार श्रीमहाभारत आश्वमेधिक पर्व के अन्तर्गत अश्वमेध पर्व में संवर्त और मरुत्त का उपाख्यानविषयक चौथा अध्याय पूरा हुआ।</div> | <div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">इस प्रकार श्रीमहाभारत आश्वमेधिक पर्व के अन्तर्गत अश्वमेध पर्व में संवर्त और मरुत्त का उपाख्यानविषयक चौथा अध्याय पूरा हुआ।</div> |
11:26, 1 अगस्त 2017 के समय का अवतरण
चतुर्थ (4) अध्याय: आश्वमेधिक पर्व (अश्वमेध पर्व)
उस धर्मात्मा करन्धम कुमार का नाम अविक्षित था। वह अपने शौर्य के द्वारा इन्द्र की समानता करता था। वह यज्ञशील, धर्मानुरागी, धैर्यवान और जितेन्द्रिय था। तेज में सूर्य, क्षमा में पृथ्वी, बुद्धि में बृहस्पति और सुस्थिरता में हिमवान पर्वत के समान माना जाता था। राजा अविक्षित मन, वीण, क्रिया, इन्द्रियसंयम और मनोहिग्रह के द्वारा प्रजाजनों का चित्त संतुष्ट किये रहते थे। उन प्रभावशाली नरेश ने विधिपूर्वक सौ अश्वमेध यज्ञों का अनुष्ठान किया था। साक्षात विद्वान् प्रभु, अंगिरा मुनि ने ही उनक यज्ञ कराया था। उन्हीं के पुत्र हुए महायशस्वी, चक्रवर्ती, धर्मज्ञ राजा मरुत्त। जो अपने गुणों के कारण पिता से भी बड़े-चढ़े थे। उनमें दस हजार हाथियों के समान बल था। वे साक्षात दूसरे विष्णु के समान जान पड़ेत थे।
धर्मात्मा मरुत्त जब यज्ञ करने को उद्यत हुए, उस समय उन्होंने सहस्त्रों सोने के समुज्ज्वल पात्र बनवाये। हिमालय पर्वत के उत्तर भाग में मेरु पर्वत के निकट एक महान् सुवर्णमय पर्वत है। उसी के समीप उन्होंने यज्ञशाला बनवायी और वहीं यज्ञ-कार्य आरम्भ किया। उनकी आज्ञा से अनेक सुनारों ने आकर सुवर्णमय कुण्ड, सोने के बर्तन, थाली और आसन (चौकी आदि) तैयार किये। उन सब वस्तुओं की गणना असम्भव है। जब सब सामग्री तैयार हो गयी, तब वहाँ धर्मात्मा, पृथ्वीपति राजा मरुत्त ने अन्य सब प्रजापालों के साथ विधिपूर्वक यज्ञ किया।
« पीछे | आगे » |