"महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 48 श्लोक 1-13": अवतरणों में अंतर
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मनीषी पुरुष इसी अनुमान से उस सत्त्वस्वरूप आत्मा का और परमात्मा का मनन करते हैं। इसमें कोर्ठ विचारणीय बात नहीं है। | मनीषी पुरुष इसी अनुमान से उस सत्त्वस्वरूप आत्मा का और परमात्मा का मनन करते हैं। इसमें कोर्ठ विचारणीय बात नहीं है। | ||
ज्ञान में भली भाँति स्थित कितने ही विद्वान् कहते है कि क्षेत्रज्ञ और सत्त्व की एकता युक्तिसंगत नहीं है। | ज्ञान में भली भाँति स्थित कितने ही विद्वान् कहते है कि क्षेत्रज्ञ और सत्त्व की एकता युक्तिसंगत नहीं है। | ||
उनका कहना है कि उस क्षेत्रज्ञ से सत्त्व | उनका कहना है कि उस क्षेत्रज्ञ से सत्त्व पृथक् है, क्योंकि यह सत्त्व अविचार सिद्ध है। ये दोनों एक साथ हरने वाले होने पर भी तत्त्वत: अलग-अलग हैं- ऐसा समझना चाहिये। | ||
इसी प्रकार उूसरे विद्वानों का निर्णय दोनों के एकत्व और नानात्व को स्वीकार करता है, क्योंकि मशक और उटुम्बर की एकता और पृथकता देखी जाती है। | इसी प्रकार उूसरे विद्वानों का निर्णय दोनों के एकत्व और नानात्व को स्वीकार करता है, क्योंकि मशक और उटुम्बर की एकता और पृथकता देखी जाती है। | ||
जैसे जल से मछली भिन्न है तो भी मछली और जल- दोनों का संयोग देखा जाता है एवं जल की बूँदों का कमल के पत्ते से सम्बन्ध देखा जाता है। | जैसे जल से मछली भिन्न है तो भी मछली और जल- दोनों का संयोग देखा जाता है एवं जल की बूँदों का कमल के पत्ते से सम्बन्ध देखा जाता है। |
13:28, 1 अगस्त 2017 के समय का अवतरण
अष्टचत्वारिंश (48) अध्याय: आश्वमेधिक पर्व (अनुगीता पर्व)
आत्मा औरपरमात्मा के स्वरूप का विवेचन
ब्रह्माजी ने कहा- महर्षिगण! इस अव्यक्त, उत्पत्तिशील, अविनाशी सम्पूर्ण वृक्षों को कोई ब्रह्म स्वरूप मानते है और कोइ्र महान् ब्रह्मवन मानते हैं। कितने ही इसे अव्यक्ति ब्रह्म और कितने ही परम अनामय मानते हैं। जो मनुष्य अन्तकाल में आत्मा का ध्यान करके, साँस लेने में जितनी देर लगती है, उतनी देर भी, समभाव में स्थित होता है, वह अमृत्व (मोक्ष) प्राप्त करने का अधिकरी हो जाता है। जो एक निमष भी अपने मन को आत्मा में एकाग्र कर लेता है, वह अन्त:करण की प्रसन्नता को पाकर विद्वानों को प्राप्त होने वाली अक्षय गति को पा जाता है। दस अथवा बारह प्राणायामों के द्वारा पुन:-पुन: प्राणों का संयम करने वाला पुरुष भी चौबीस तत्त्वों परे पचीसवें तत्व परमात्मा को प्राप्त होता है। इस प्रकार जो पहले अपने अन्त:करण को शुद्ध कर लेता है, वह जो-जो चाहता है उसी-उसी वस्तु को पा जाता है। अव्यक्त से उत्कृष्ट जो सत्स्वरूप आत्मा है, वह अमर होने में समर्थ है। अत: सत्त्वस्वरूप आत्मा के महत्त्व को जानने वाले विद्वान् इस जगत् में सत्त्व से बढ़कर और किसी वस्तु की प्रशंसा नहीं करते। द्विजवरो! इस अनुमान प्रमाण के द्वारा इस बात को अच्छी तरह जानते हैं कि अन्तर्यामी परमात्मा सत्त्वस्वरूप आत्मा में स्थित हैं। इस तत्त्व को समझे बिना परम पुरुष को प्राप्त करना सम्भव नहीं है। क्षमा, धैर्य, अहिंसा, समता, सत्य, सरलता, ज्ञान, त्याग तथा संन्यास- ये सात्त्विक बर्ताव बताये गये हैं। मनीषी पुरुष इसी अनुमान से उस सत्त्वस्वरूप आत्मा का और परमात्मा का मनन करते हैं। इसमें कोर्ठ विचारणीय बात नहीं है। ज्ञान में भली भाँति स्थित कितने ही विद्वान् कहते है कि क्षेत्रज्ञ और सत्त्व की एकता युक्तिसंगत नहीं है। उनका कहना है कि उस क्षेत्रज्ञ से सत्त्व पृथक् है, क्योंकि यह सत्त्व अविचार सिद्ध है। ये दोनों एक साथ हरने वाले होने पर भी तत्त्वत: अलग-अलग हैं- ऐसा समझना चाहिये। इसी प्रकार उूसरे विद्वानों का निर्णय दोनों के एकत्व और नानात्व को स्वीकार करता है, क्योंकि मशक और उटुम्बर की एकता और पृथकता देखी जाती है। जैसे जल से मछली भिन्न है तो भी मछली और जल- दोनों का संयोग देखा जाता है एवं जल की बूँदों का कमल के पत्ते से सम्बन्ध देखा जाता है। गुरु ने कहा- इस प्रकार कहने पर उन मुनिश्रेष्ठ ब्राह्मणों ने पुन: संशय में पड़कर उस समय लोक पितामह ब्रह्माजी से पूछा।
इस प्रकार श्रीमहाभारत आश्वमेधिक पर्व के अन्तर्गत अनुगीतापर्व में गुरु शिष्य संवादविषयक अड़तालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।
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