महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 37 श्लोक 32-45

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सप्तत्रिंश (37) अध्याय: कर्ण पर्व

महाभारत: कर्ण पर्व: सप्तत्रिंश अध्याय: श्लोक 32-45 का हिन्दी अनुवाद

संजय कहते हैं-राजन् ! पराक्रमी मद्रराज शल्य युद्ध के उत्साह में भरकर बढ़-बढ़कर बातें बनाने वाले कर्ण के उस कथन को सुनकर उसकी अवहैलना करके उपहास करने लगे। उन्होंने फिर ऐसी बातें कहने से कर्ण को रोका और इस प्रकार उत्तर दिया।

शल्य ने कहा-कर्ण ! बस,अब बढ़-बढ़कर बातें बनाना बंद करो,बंद करो। तुम अधिक जोश में आकर अपनी शक्ति से बहुत बड़ी बात कह गये। भला,कहाँ नरश्रेष्ठ अर्जुन और कहाँ मनुष्यों में तुम ? बताओ तो सही,अर्जुन के सिवा दूसरा कौन ऐसा वीर है,जो साक्षात् विष्णु भगवान से सुरक्षित यदुवंशियों की पुरी को जिसकी उपमा देवराज इन्द्र द्वारा पालित देवनगरी अमरावती से दी जाती है ? बलपूर्वक मथकर पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण की छोटी बहिन सुभद्रा का अपहरण कर सके। देवराज इन्द्र के समान बल और प्रभाव रखने वाले अर्जुन को छोड़कर इस संसार में दूसरा कौर ऐसा वीर पुरुष है,जो एक वन्य पशु को मारने के विषय में उठे हुए विवाद के अवसर पर ईश्वरों के भी ईश्वर त्रिलोकी नाथ भगवान शंकर को भी युद्ध के लिए ललकार सके। अर्जुन ने अग्निदेव का गौरव मानकर गरुड़,पिशाच,यक्ष,राक्षस,देवता,असुर,बड़े-बड़े नाग तथा मनुष्यों को भी बाणों द्वारा परास्त कर दिया और अग्नि को अभीष्ट हविष्य प्रदान किया था। कर्ण ! याद है वह घटना,जब कि कुरुजांगल प्रदेश में घोषयात्रा के समय गन्धर्वों ने शत्रु बनकर दुर्योधन का अपहरण कर लिया था,उस समय इन्ही अर्जुन ने सूर्य किरणों के समान तेजस्वी उत्तमोत्तम बाणों द्वारा उन बहुसंख्यक शत्रुओं को मारकर धृतराष्ट्रपुत्र को बन्धन से मुक्त किया था। उस युद्ध में तुम सबसे पहले भाग गये थे। उस समय पाण्डवों ने गन्धर्वों को पराजित करके कलहप्रिय धुतराष्ट्रपुत्रों को कैद से छुड़ाया था। क्या ये सब बातें तुम्हें याद हैं ? विराटनगर में गाहरण के समय पुरुषश्रेष्ठ अर्जुन ने विशाल बल-वाहन से सम्पन्न तुम सब लोगों को द्रोणाचार्य,अश्वत्थामा और भीष्म के सहित परास्त कर दिया था। उस समय तुमने अर्जुन को क्यों नही जीत लिया ? सूतपुत्र ! अब आज तुम्हारे वध के लिये पनः यह दूसरा उत्तम युद्ध उपस्थित हुआ है। यहद तुम शत्रु के भय से भाग नहीं गये तो समरांगण में पहुँचकर अवश्य मारे जाओगे।

संजय ने कहा- राजन् ! जब महामना मद्रराज शल्य इस प्रकार शत्रु की प्रशंसा से सम्बन्ध रखने वाली बहुत सी कड़वी बातें सुनाने लगे,तब कौरव-सेनापति शत्रुसंतापी कर्ण अत्यन्त क्रोध से जल उठा और शल्य से बोला।

कर्ण ने कहा-रहने दो,रहने दो ! क्यों बहुत बड़-बड़ा रहै हो। अब तो मेरा और उसका युद्ध उपस्थित हो ही गया है। यदि अर्जुन यहाँ युद्ध में मुझे परास्त कर दें,तब तुम्हारा यह बढ़-बढ़कर बातें करना ठीक और अच्छा समझा जायगा।

संजय कहते हैं-राजन् ! तब मद्रराज शल्य ‘एवमस्तु ‘कहकर चुप हो गये। उन्होंने कर्ण की उस बात का कोई उत्तर नहीं दिया। तब कर्ण ने युद्ध की इच्छा से उनसे कहा- ‘शल्य ! रथ आगे ले चलो ‘। तत्पश्चात् शल्य जिसके सारथि थे और जिसमें श्वेत घोड़े जुते हुए थे,वह विशाल रथ अन्धकार का विनाश करने वाले सूर्यदेव के समान शत्रुओं का संहरी करता हुआ आगे बढ़ा।। तदननतर व्याघ्रचर्म से आच्छादित और श्वेत अश्वों से युक्त उस रथ के द्वारा कर्ण बड़ी प्रसन्नता के साथ प्रस्थित हुआ। उसने सामने ही पाण्डवों की सेना को खड़ी देख बड़ी उतावली के साथ धनंजय का पता पूछा।

इस प्रकार श्रीमहाभारत में कर्णपर्व में कर्ण और शल्य संवाद विषयक सैंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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