महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 34 श्लोक 1-12

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चतुसंत्रिश (34) अध्‍याय: आश्वमेधिक पर्व (अनुगीता पर्व)

महाभारत: आश्वमेधिक पर्व: चतुसंत्रिश अध्‍याय: श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद



भगवान श्रीकृष्ण के द्वारा ब्राह्मण, ब्राह्मणी और क्षेत्रज्ञ का रहस्य बतलाते हुए ब्राह्मण गीता का उपसंहार

ब्राह्मणी बोली- नाथ! मेरी बुद्धि थोड़ी और अन्त:करण अशुद्ध है, अत: आपने संक्षेप में जिस महान् ज्ञान का उपदेश किया है, उस बिखरे हुए उपदेश को समझना मेरे लिये कठिन है। मैं तो उसे सुनकर भी धारण न कर सकी। अत: आप कोई ऐसा उपाय बताइये, जिससे मुझे भी यह बुद्धि प्रापत हो। मेरा विश्वास है कि वह उपाय आप ही से ज्ञात हो सकता है। ब्राह्मण ने कहा- देवि! तुम बुद्धि को नीचे की अरणी और गुरु को ऊपर की अरणी समझो। तपस्या और वेद-वदान्त के श्रवण मनन द्वारा मन्थन करन ेपर उन अरणियों से ज्ञान रूप अग्नि प्रकट होती है। ब्राह्मणी ने पूछा- नाथ! क्षेत्रज्ञ नाम से प्रसद्धि शरीरान्वर्तर्ती जीवात्मा को जो ब्रह्म का स्वरूप बताया जाता है, यह बात कैसे सम्भव है? क्योंकि जीवात्मा ब्रह्म के नियन्त्रण में रहता है और जो जिसके नियन्त्रण में रहता है, वह उसका स्वरूप हो, ऐसा कभी नहीं देखा गया। ब्राह्मण ने कहा- देवि! क्षेत्रज्ञ वास्वत में देह सम्बन्ध से रहित और निर्गुण है, क्योंकि उसके सगुण और साकार होने का कोई कारण नहीं दिखायी देता। अत: मैं वह उपाय बताता हूँ जिससे वह ग्रहण किया जा सकता है अथवा नहीं भी किया जा सकता। उस क्षेत्र का साक्षात्कार करने के लिये पूर्ण उपाय देखा गया है। वह यह है कि उसे देखने की क्रिया का त्याग कर देने से भौरों के द्वारा गन्ध की भाँति वह अपने आप जाना जाता है। किंतु कर्म विषयक बुद्धि वास्तव में बुद्धि न होने के कारण ज्ञान के सदृश प्रतीत होती है तो भी वह ज्ञान नहीं है। (अत: क्रिया द्वारा उस का साक्षात्कार नहीं हो सकता)। यह कर्तव्य है, यह कर्तव्य नहीं है- यह बात मोक्ष के साधनों में नहीं कही जाती। जिन साधनों में देखने और सुनने वाले की बुद्धि आत्मा के स्वरूप में निश्चित होती है, वही यथार्थ साधन है। यहाँ जितनी कल्पनाएँ की जात सकती हैं, उतने ही सैकड़ों और हजारों अव्यक्त और व्यक्त रूप अंशों की कल्पना कर लें। वे सभी प्रत्यक्ष प्रतीत होने वाले पदार्थ वास्तविक अर्थयुक्त नहीं हो सकते। जिससे पर कुछ भी नहीं है, उसका साक्षात्कार तो ‘नेति-नेति’ अर्थात यह भी नहीं, यह भी नहीं इस अभ्यास के अन्त में ही होगा। भगवान श्रीकृष्ण ने कहा- पार्थ! उसके बाद उस ब्राह्मणी की बुद्धि, जो क्षेत्र यज्ञ के संशय से युक्त थी, क्षेत्र के ज्ञान से अतीत क्षेत्रज्ञों से युक्त हुई। अर्जुुन ने पूछा- श्रीकृष्ण! वह ब्राह्मणी कौन थी और वह श्रेष्ठ ब्राह्मण कौन था? अच्युत! जिन दोनों के द्वारा यह सिद्धि प्राप्त की गयी, उन दोनों का परिचय मुझ बताइये। भगवान श्रीकृष्ण बोल- अर्जुन! मेरे मन को तो तुम ब्राह्मण समझो और मेरी बुद्धि को ब्राह्मणी समझो एवं जिसको क्षेत्रज्ञ ऐसा कहा गया है, वह मैं ही हूँ।


इस प्रकार श्रीमहाभारत आश्वमेधिक पर्व के अन्तर्गत अनुगीतापर्व में ब्राह्मणगीता विषयक चौतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।













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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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