महाभारत सभा पर्व अध्याय 5 श्लोक 13-22

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पञ्चम (5) अध्‍याय: सभा पर्व (लोकपालसभाख्यान पर्व)

महाभारत: सभा पर्व: पञ्चम अध्याय: श्लोक 13-22 का हिन्दी अनुवाद

सम्पूर्ण धर्मों के ज्ञाता पाण्डव श्रेष्ठ राजा युधिष्ठिर ने देवर्षि नारद को आया देख भाइयों सहित सहसा उठकर उन्हें प्रेम,विनय और नम्रता पूर्वक उस समय नमस्कार किया और उन्हें उनके योग्य आसन देकर धर्मज्ञ नरेश ने गौ, मधु पर्क तथा अध्र्य आदि उपचार अर्पण करते हुए रत्नों से उनका विधिपूर्वक पूजन किया तथा उनकी सब इच्छाओं की पूर्ति करके उन्हें संतुष्ट किया। राजा युधिष्ठिर से यथोचित पूजा पाकर नारद जी भी बहुत प्रसन्न हुए । इस प्रकार सम्पूर्ण पाण्डवों से पूजित होकर उन वेदवेत्ता महर्षि ने युधिष्ठिर से धर्म, काम और अर्थ तीनों के उपदेश पूर्वक ये बातें पूछीं। नारद जी बोले- राजन् ! क्या तुम्हारा धन तुम्हारे (यज्ञ, दान तथा कुटुम्ब रक्षा आदि आवश्यक कार्यों के) निर्वाह लिये पूरा पड़ जाता है ? क्या धर्म में तुम्हारा मन प्रसन्नता पूर्वक लगता है ? क्या तुम्हें इच्छानुसार सुख-भोग प्राप्‍त होते हैं ? (भगव चिंन्तन में लगे हुए) तुम्हारे मन को (किन्हीं दूसरी वृत्तियों-द्वारा) आघात या विक्षेप तो नहीं पहुँचता है?
नरदेव ! क्या तुम ब्राह्मण, वैश्य और शूद्र- इन तीनों वर्णों की प्रजाओं के प्रति अपने पिता-पितामहों द्वारा व्यवहार- में लायी हुई धर्मार्थयुक्त उत्तम एवं उदार वृत्ति का व्यवहार करते हो ? तुम धन के लोभ में पड़कर धर्म को, केवल धर्म ही संलग्न रहकर धन को अथवा आसक्ति ही जिसका बल है, उस काम- भोग के सेवन द्वारा धर्म और अर्थ दोनों को ही हानि तो नहीं पहुँचाते ? विजयी वीरों में श्रेष्ठ एवं वरदायक नरेश ! तुम त्रिवर्ग-सेवन के उपयुक्त समय का ज्ञान रखते हो; अतः काल का विभाग करके नियन और उचित समयपर सदा धर्म, अर्थ एवं काम का सेवन करते हो न ?[1]
निष्पाप युधिष्ठिर ! क्या तुम राजोचित छह[2] गुणों के द्वारा सात[3] उपायों की, अपने और शत्रु के बलाबली तथा देशपाल, दुर्गपाल आदि चौदह[4] व्यक्तियों की भलीभाँति परख करते रहते हो ? विजेताओं में श्रेष्ठ भरत वंशी युधिष्ठिर ! क्या तुम अपनी और शत्रु की शक्ति को अच्छी तरह समझ कर यदि शत्रु प्रबल हुआ तो उस के साथ संधि बनाये रखकर अपने धन और कोष की वृद्धि के आठ[5] कर्मों का सेवन करते हो ?


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. दक्षस्मृति में त्रिवर्ग सेवन का काल-विभाग इस प्रकार बताया गया है- पूर्वाह्वे त्वाचरेद् धर्म मध्याह्नेऽर्थमुपार्जयेत् । सायाह्ने चाचरेत् काममित्येषा वैदिकी श्रुतिः ।। पूर्वाह्न काल में धर्म का आचरण करे, मध्याह्न के समय धनोपार्जन- का काम देखे और सायाह्न (रात्रि) के समय काम का सेवन करे । यह वैदिक श्रुति का आदेश है । (नीलकण्ठी से उद्धृत)
  2. राजाओं में छह गुण होने चाहिये - व्याख्यान शक्ति, प्रगल्भता, तर्ककुशलता, भूतकाल की स्मृति, भविष्य पर दृष्टि तथा नीति निपुणता।
  3. सात उपाय ये हैं- मन्त्र, औषध, इन्द्रजाल, साम, दान, दण्ड और भेद।
  4. परीक्षा के योग्य चौदह स्थान या व्यक्ति नीतिशास्त्र में इस प्रकार बताये गये हैं- देशो दुर्ग रथो हस्तिवाजियोधाधिकारिणः । अन्तः पुरान्नगणनाशास्त्रलेख्यधनासवः ।। देश, दुर्ग, रथ, हाथी, घोड़े, शूर सैनिक, अधिकारी, अन्तःपुर, अन्न, गणना, शास्त्र, लेख्य, धन और असु (बल), इन के जो चौदह अधिकारी हैं, राजाओं को उनकी परीक्षा करते रहना चाहिये ।
  5. राजा के कोष और धन की वृद्धि के लिये आठ कर्म ये है - कृषिर्वणिक्‍पथो दुर्ग सेतुः कुंजरबन्धनम् । खन्याकरकरादानं शून्यानां च निवेशनम्।। अष्ट संधानकर्माणि प्रयुक्तानि मनीषिभिः ।। खेती का विस्तार, व्यापार की रक्षा, दुर्ग का रचना एवं रक्षा, पुलों का निर्माण और उनकी रक्षा, हाथी बाँधना, सोने-हीरे आदि की खानों पर अधिकार करना, कर की वसूली और उजाड़ प्रान्तों में लोगों को बसाना- मनीषी पुरुषों द्वारा ये आठ संधान कर्म बताये गये हैं।

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