महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 17 श्लोक 17-24

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
व्यवस्थापन (वार्ता | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:26, 1 अगस्त 2017 का अवतरण (Text replacement - "पृथक " to "पृथक् ")
(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ:नेविगेशन, खोजें

सप्तदश (17) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: सप्तदश अध्याय: श्लोक 17-24 का हिन्दी अनुवाद

इस जगत् में ममता और आसक्ति के बन्धन को आमिष कहा गया है। सकाम कर्म भी आमिष कहलाता है। इन दोनों अमिषस्वरूप पापों से जो मुक्त हो गया है, वही परमपद को प्राप्त होता है। इस विषय में पूर्वकाल में राजा जनक की कही हुई एक गाथा का लोग उल्लेख किया करते हैं। राजा जनक समस्त द्वन्द्वों से रहित और जीवन्मुक्त पुरुष थे। उन्होंने मोक्षस्वरूप परमात्मतत्व का साक्षात्कार कर लिया था। (उनकी वह गाथा इस प्रकार है-) दूसरों की दृष्टि में मेरे पास बहुत धन है; परंतु उसमें से कुछ भी मेरा नहीं है। सारी मिथिला में आग लग जाय तो भी मेरा कुछ नहीं जलेगा। जैसे पर्वत चोटी पर चढ़ा मनुष्य धरती पर खड़े हुए प्राणियों को केवल देखता है, उनकी परिस्थिति से प्रभावित नहीं होता, उसी प्रकार बुद्धि की अटटालिका पर चढ़ा हुआ मनुष्य उन शोक करने वाले मन्दबुद्धि लोगो को देखता है, किंतु स्वयं उनकी भाति दुखी नहीं होता। जो स्वयं द्रष्टारूप से पृथक् रहकर इस दृष्य प्रपत्र को देखता है, वही आखवाला है और वही बुद्धिमान है। अज्ञात तत्वों का ज्ञान एवं सम्यग् बोध कराने के कारण अत्यःरणकी एक वृत्ति को बुद्धि कहते हैं। जो ब्रह्म भावकों को प्राप्त हुए शुद्धात्मा विद्वानों का-सा बोलना जान लेता है, उसे अपने ज्ञान पर बड़ा अभिमान हो जाता है(जैसे कि तुम हो)। जब पुरुष प्राणियों की पृथक्-पृथक् सत्ता को एकमात्र परमात्मा में ही स्थित देखता है और उस परमात्मा से ही सम्पूर्ण भूतों का विस्तार हुआ मानता है, उस समय वह सचिदान्नघन ब्रहमकों प्राप्त होता है। बुद्धिमान और तपस्वी ही उस गति को प्राप्त होते हैं। जो अज्ञानी, मन्दबुद्धि, शुद्धबुद्धि से रहित और तपस्या से शून्य हैं, वे नहीं; क्यों कि सब कुछ बुद्धि में ही प्रतिष्ठित है।

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्तर्गत राजधर्मानुशासन पर्व में युधिष्टिर का वाक्य विषयक सत्रहवाँ अध्याय पूरा हुआ।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख