महाभारत आदि पर्व अध्याय 50 श्लोक 39-54

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
नवनीत कुमार (वार्ता | योगदान) द्वारा परिवर्तित 09:08, 27 जुलाई 2015 का अवतरण
(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ:नेविगेशन, खोजें

पञ्चाशत्तम (50) अध्‍याय: आदि पर्व (आस्तीक पर्व)

महाभारत: आदि पर्व: पञ्चाशत्तम अध्‍याय: श्लोक 39-54 का हिन्दी अनुवाद

मन्त्री बोले—राजन ! सुनो, विप्रवर कश्यप और नागराज तक्षक का मार्ग में एक-दूसरे के साथ जो समागम हुआ था, उसका समाचार जिसने और जिस प्रकार हमारे सामने बताया था, उसका वर्णन करते हैं। भूपाल ! उस वृक्ष पर पहले से ही कोई मनुष्य लकड़ी लेने के लिये सूखी डाली खोजता हुआ चढ़ गया था। तक्षक नाग और ब्राह्मण—दोनों ही नहीं जानते थे कि इस वृक्ष पर कोई दूसरा मनुष्य भी है। राजन ! तक्षक के काटने पर उस वृक्ष के साथ ही वह मनुष्य भी जलकर भस्म हो गया था। परंतु राजेन्द्र ! ब्राह्मण के प्रभाव से वह भी उस वृक्ष के साथ जी उठा। नरश्रेष्ठ ! उसी मनुष्य ने आकर हम लोगों से तक्षक और ब्राह्मण की जो घटना थी, वह सुनायी। राजन ! इस प्रकार हमने जो कुछ सुना और देखा है, वह सब तुम्हें कह सुनाया। भूपाल-शिरोमणे ! यह सुनकर अब तुम्हें जैसा उचित जान पड़े, वह करो। उग्रश्रवाजी कहते हैं—मन्त्रियों की बात सुनकर राजा जनमेजय दुःख से आतुर हो संतप्त हो उठे और कुपित होकर हाथ से हाथ मलने लगे। वे बारम्बार लम्बी और गरम साँस छोड़ने लगे। कमल के समान नेत्रों वाले राजा जनमेजय उस समय नेत्रों से आँसू बहाते हुए फूट-फूटकर रोने लगे। राजा ने दो घड़ी तक ध्यान करके मन-ही-मन कुछ निश्चय किया, फिर दुःख शोक और अमर्ष में डूबे हुए नरेश ने थमने वाले आँसुओं की अविच्छिन्न धारा बहाते हुए विधिपूर्वक जल का स्पर्श करके सम्पूर्ण मन्त्रियों से इस प्रकार बोले। जनमेजय ने कहा—मन्त्रियों ! मेरे पिता के स्वर्गलोक गमन के विषय में आप लोगों का यह वचन सुनकर मैंने अपनी बुद्धि द्वारा जो कर्तव्य निश्चित किया है, उसे आप सुन लें। मेरा विचार है, उस दुरात्मा तक्षक से तुरंत बदला लेना चाहिये जिसने श्रृंगी ऋषि को निमित्त मात्र बनाकर स्वयं ही मेरे पिता महाराज को अपनी विष अग्नि से दग्ध करके मारा है। उसकी सबसे बड़ी दुष्टता यह है कि उसने कश्यप को लौटा दिया। यदि वे ब्राह्मण देवता आ जाते तो मेरे पिता निश्चय ही जीवित हो सकते थे। यदि मन्त्रियों के विनय और कश्यप के कृपा प्रसाद से महाराज जीवित हो जाते तो इसमें उस दुष्ट की क्या हानि हो जाती? जो कहीं भी परास्त न होते थे, ऐसे मेरे पिता राजा परीक्षित को जीवित करने की इच्छा से द्विजश्रेष्ठ कश्यप आ पहुँचे थे, किंतु तक्षक ने मोहवश उन्हें रोक दिया। दुरात्मा तक्षक का यह सबसे बड़ा अपराध है कि उसने ब्राह्मण देव को इसलिये धन दिया कि वे महाराज को जिला न दें। इसलिये मैं महर्षि उत्तंक का, अपना तथा आप सब लोगों का अत्यन्त प्रिय करने के लिये पिता के वैर का अवश्य बदला लूँगा।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख