महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 35 श्लोक 21-42

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पञ्चत्रिंश (35) अध्याय: कर्ण पर्व

महाभारत: कर्ण पर्व: पञ्चत्रिंश अध्याय: श्लोक 21-42 का हिन्दी अनुवाद

‘आप भी सम्पूर्ण अस्त्रों के ज्ञाता,समसत विद्याओं तथा अस्त्रों के पारंगत विद्वान एवं वीर हैं। इस भूतल पर बाहुबल के द्वारा आपकी समानता करने वाला कोई नहीं है। ‘शत्रुसूदन नरेश ! आप पराक्रम प्रकट करते समय शत्रुओं के लिये असह्य हो उठते हैं,उनके लिये आप शल्यभूत (कण्टक स्वरूप ) हैं;इसीलिये आपका शल्य कहा जाता है। ‘राजन ! आपके बाहुबल को सामने पाकर सम्पूर्ण सात्वतवंशी क्षत्रिय कभी युद्ध में अिक न सके हैं। क्या आपके बाहुबल से श्रीकृष्ण का बल अधिक है ? ‘जैसे अर्जुन के मारे जाने पर श्रीकृष्ण पाण्डव-सेना की रक्षा करेंगे,उसी प्रकार यदि कर्ण मारा गया तो आपको मेरी विशाल वाहिनी का संरक्षण करना होगा। ‘मान्यवर ! वसुदेवनन्दन श्रीकृष्ण क्यों कौरव-सेना का निवारण करेंगे और क्यों आप पाण्डव-सेना का वध नहीं करेंगे ? ‘माननीय नरेश ! मैं तो आपके ही भरोसे युद्ध में मारे गये अपने वीर भाईयों तथा समस्त राजाओं के (ऋण से मुक्त होने के लिये उन्हीं के) पथ पर चलने की इच्छा रखता हूँ।

शल्य ने कहा-मानद ! राधापुत्र कर्ण का पाण्डवशिरोमणि अर्जुन के साथ युद्ध करमे समय सारथ्य करूँगा जैसा कि तुम चाहते हो। वीरवर ! परंतु वैकर्तन कर्ण को मेरी एक शर्त का पालन करना होगा। मैं इसके समीप जो जी में आयेगा,वैसी बातें करूँगा।

संजय कहते हैं-माननीय नरेश ! तब समस्त शत्रियों के समीप कर्ण सहित आपके पुत्र ने मद्रराज शल्य से कहा-बहुत अच्छा,आपकी शर्त स्वीकार है। सारथ्य स्वीकार करके जब शल्य ने आश्वासन दिया,तब राजा दुर्योधन ने बड़े हर्ष के साथ कर्ण को गले लगा लिया।।32।। तत्पश्चात् वन्दीजनों द्वारा अपनी स्तुति सुनते हुए आपके पुत्र ने कर्ण से कहा- ‘वीर ! तुम रणक्षेत्र में कुन्ती के समस्त पुत्रों को उसी प्रकार मार डालो,जैसे देवराज इन्द्र दानवों का संहार करते हैं। शल्य के द्वारा अश्वों का नियन्त्रण स्वीकार कर लिये जाने पर कर्ण प्रसन्नचित हो पुनः दुर्योधन से बोला-। ‘राजन् ! मद्रराज शल्य अधिक प्रसन्न होकर बात नहीं कर रहै हैं;अतः तुम मधुर वाणी द्वारा इन्हें फिर से समझाते हुए कुछ कहो ‘। तब सम्पूर्ण अस्त्रों के संचालन में कुशल,परम बुद्धिमान एवं बलवान् राजा दुर्योधन ने मद्र देश के राजा पृथ्वीपति शल्य को सम्बोधित करके अपने स्वर से वहाँ के प्रदेश को गुँजाते हुए मेघ के समान गम्भीर वाणी द्वारा इस प्रकार कहा-। ‘शल्य ! आज कर्ण अर्जुन के साथ युद्ध करने की इच्छा रखता है। पुरुषसिंह ! आप रखस्थल में इसके घोड़ों को काबू में रक्खें। ‘कर्ण अन्य सब शत्रुवीरों का संहार करके अर्जुन का वध करना चाहता है। राजन् ! आपसे उसके घोड़ों की बागडोर सँभालने के लिए सैं बारंबार याचना करता हूँ। जैसे श्रीकृष्ण अर्जुन के श्रेष्ठ सचिव तथा सारथि हैं,उसी प्रकार आप भी राधापुत्र कर्ण की सर्वथा रक्षा कीजिये

संजय कहते हैं-महाराज ! तग मद्रराज शल्य ने प्रसन्न हो अपके पुत्र शत्रूसूदन दुर्योधन को हृदय से लगाकर कहा। शल्य बोले-गान्धारीनन्दन ! प्रियदर्शन नरेश ! यदि तुम ऐसा समझते हो तो तुम्हारा जो कुछ प्रिय कार्य है,वह सब मैं करूँगा। भरतश्रेष्ठ ! मैं जहाँ कभी भी जिस कर्म के योग्य होऊँ,वहाँ उस कर्म में तुम्हारे द्वारा नियुक्त कर दिये जाने पर सम्पूर्ण हृदय से उस कार्य को वहन करूँगा।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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