महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 22 श्लोक 1-11

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द्वाविंश (22) अध्‍याय: उद्योग पर्व (सेनोद्योग पर्व)

महाभारत: उद्योग पर्व: द्वाविंश अध्याय: श्लोक 1-11 का हिन्दी अनुवाद


धृतराष्ट्र का संजय से पाण्डवों के प्रभाव और प्रतिभा वर्णन करते हुए उसे संदेश देकर पाण्डवों के पास भेजना

धृतराष्ट्र ने कहां - संजय ! लोग कहते है कि पाण्डव उपलव्य नामक स्थान में आ गये है । तुम वहां जाकर उनका समाचार जानो ! अजातशत्रु युधिष्ठर से आदर पूर्वक मिलकर कहना, सौभाग्य की बात है कि आप सम्बद्ध होकर अपने योग्य स्थान पर आ पहुंचे ।संजय ! पाण्डवों से कहना कि हम लोग सकुशल है । पाण्डव लोग मिथ्या से दूर रहने वाले, परोपकारी तथा साधुपुरूष है । वे वनवास का कष्ट भोगने योग्य नही थे, तो भी उन्होंने वनवास का नियम पूरा कर लिया है । इतने पर भी हमारे ऊपर उनका क्रोध शीध्र की शान्त हो गया है । संजय ! मैने कभी कही पाण्डवों में थोडी सी मिथ्या वृति नही देखी है । पाण्डवों ने अपने पराक्रम से प्राप्त हुई सारी सम्पŸिा मेरे ही अधीन कर दी थी । मैने सदा ढूंढते रहने पर भी कुन्ती पुत्र का कोई ऐसा दोष नही देखा है, जिससे उनकी निन्दा करू । वे सदा धर्म अर्थ के लिए ही कर्म करते है, कामनावश मानसिक प्रीति और स्त्री पुत्रादि प्रिय वस्तुओं में नही फंसते हे - काम भोग में आसक्त होकर धर्म का परित्याग नहीं करते । पाण्डव धाम शीत, भूख प्यास, निद्रा तन्द्रा क्रोध हर्ष तथा प्रमाद को धैर्य एवं विवेक पूर्ण बुद्धि के द्वारा जीतकर धर्म अर्थ के लिये ही प्रयत्नशील बने रहते है । वे समय पड़ने पर मित्रों को उनकी सहायता के लिये धन देते है । दीर्घकालिक प्रभाव से उनकी मैत्री क्षीण नही होती है । कुन्तीपुत्र यथायोग्य सबका सदा सत्कार करने वाले है । अजमीढवंशी हम कौरवों के पक्ष में पापी, बेइमान तथा मन्द बुद्धि दुर्योधन एवं अत्यन्त क्षुद्र स्वभाव वाले कर्ण को छोड़कर दूसरा कोई भी उनसे दे्ष रखनेवाला नही है । संजय ! मेरा पुत्र दुर्योधन काल के अधीन हो गया है य क्योंकि उसकी बुद्धि राग से दूषित है । वह मूर्ख अत्यन्त तेजस्वी महात्मा पाण्डवों के स्वत्व को दबा लेने की चेष्ठा कर रहा है । केवल दुर्योधन और कर्ण ही सुख और प्रियजनो से बिछुडे हुए महामना पाण्डवों के मन में क्रोध उत्पन्न करते रहते है । दुर्योधन आरम्भ में ही पराक्रम दिखानेवाला, (अन्त तक उसे निभा नही सकता य ) क्योंकि वह सुख वह सुख में ही पलकर बडा हुआ है । वह इतना मुर्ख है कि पाण्डवों के जीते जी उनका भाग हर लेना सरल समझता है । इतना ही नही, वह इस कुकर्म को उŸाम कर्म भी मानने लगा है ।अर्जुन, भगवान् श्रीकृष्ण, भीमसेन, सात्यकि, नकुल, सहेदव और सम्पूर्ण सूर्यवंशी वीर जिनके पीछे चलते है, जन युधिष्ठर को युद्ध के पहले ही उनका राज्यभाग दे देने में भलाई है । गाण्डीवधारी सव्यसाची अर्जुन रथ में बैठकर अकेले ही सारी पृथ्वी को जीत सकते है । इसी प्रकार विजयशील एवं दुधर्ष महात्मा श्रीकृष्ण भी तीनों लोको को जीतकर उनके अधिपति हो सकते है । जो समस्त लोकों में एकमात्र सर्वश्रेष्ठ वीर है, जो मेघ गर्जना के समान गम्भीर शब्द करनेवाले तथा टिड्डियों के दल की भांति तीव्र वेग से चलने वाले वाण समूहो ं की वर्षा करते है, उन वीरवर अर्जुन के सामने कौन मनुष्य ठहर सकता है ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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