महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 40 श्लोक 1-13

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चत्वारिंश (40) अध्‍याय: आश्वमेधिक पर्व (अनुगीता पर्व)

महाभारत: आश्वमेधिक पर्व: चत्वारिंश अध्याय: श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद


महत्ततव के नाम और परमात्मतत्व को जानने की महिमा

ब्रह्माजी बोले- महर्षिगण! पहले अव्यक्त प्रकृति से महान आत्मस्वरूप महाबुद्धितत्व उत्पन्न हुआ। यही सब गुणों का आदि तत्त्व और प्रथम सर्ग कहा जाता है। महान् आत्मा, मति, विष्णु, शम्भु, वीर्यवान, बुद्धि, प्रज्ञा, उपलब्धि, ख्याति, धृति, स्मृति- इन पर्यायवाची नामों से महान् आत्मा की पहचान होती है। उसके तत्त्व को जानने वाला विद्वान ब्राह्मण कभी मोह में नहीं पड़ता। परमात्मा सब ओर हाथ-पैर वाला, सब ओर नेत्र, सिर और मुख वाला तथा सब ओर कान वाला है, क्योंकि वह संसार में सबको व्याप्त करके स्थित है। सबके हृदय में विराजमान परम पुरुष परमात्मा का प्रभाव बहुत बड़ा है। अणिमा, लघिमा और प्राप्ति आदि सिद्धियाँ उसी के स्वरूप हैं। वह सबका शासन करने वाला, ज्योतिर्मय और अविनाशी है। संसार में जो कोई भी मनुष्य बुद्धिमान, सद्भाव परायण, ध्यानी, नित्य योगी, सत्यप्रतिज्ञ, जितेन्द्रिय, ज्ञानवान, लोभहीन, क्रोध को जीतने वाले, प्रसन्नचित, धीर तथा ममता और अहंकार से रहित हैं, वे सब मुक्त होकर परमात्मा को प्राप्त होते हैं। जो सर्वश्रेष्ठ परमात्मा की महिला को जानता है, उसे पुण्यदायक उत्तम गति मिलती है। पृथ्वी, वायु, आकाश, जल और पाँचवाँ तेज- ये पाँचों महाभूत अहंकार से उत्पन्न होते हैं। उन पाँचों महाभूतों तथा उनके कार्य शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध आदि से सम्पूर्ण प्राणी युक्त हैं। धैर्यशाली महर्षियो! जब पंचमहा भूतों के विनाश के समय प्रलयकाल उपस्थित होता है, उस समय समस्त प्राणिों को महान् भय का सामना करना पड़ता है। किंतु सम्पूर्ण लोगों में जो आत्मज्ञानी धीर पुरुष है, वह उस समय भी मोहित नहीं होता है। आदिसर्ग में सर्वसमर्थ स्वयम्भू विष्णु ही स्वयं अपनी इच्छा से प्रकट होते हैं। जो इस प्रकार बुद्धिरूपी गुहा में स्थित, विश्वरूप, पुराणपुरुष, हिरण्मय देव और ज्ञानियों की परम गतिरूप परम प्रभु को जानता है, वह बुद्धिमान बुद्धि की सीमा के पार पहुँच जाता है।

इस प्रकार श्रीमहाभारत आश्वमेधिक पर्व के अन्तर्गत अनुगीतापर्व में गुरु शिष्य संवादविषयक चालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।






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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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