महाभारत आदि पर्व अध्याय 5 श्लोक 1-19
पञ्चम (5) अध्याय: आदि पर्व (पौलोम पर्व)
भृगु के आश्रम पर पुलोमा दान का आगमन और उसकी अग्नि देव के साथ बातचीत
शौनक जी ने कहा—तात लोमहर्षण कुमार ! पूर्व काल में आपके पिता ने सब पुराणों का अध्ययन किया था। क्या आपने भी उन सबका अध्ययन किया है? पुराण में दिव्य कथाएँ वर्णित हैं। परम बुद्धिमान राजर्षियों और ब्रह्मषियों के आदि वंश भी बताये गये हैं। जिनको पहले हमने आपके पिता के मुख से सुना है। उनमें से प्रथम तो मैं भृगुवंश का ही वर्णन सुनना चाहता हूँ। अतः आप इसी से सम्बन्ध रखने वाली कथा कहिये। हम सब लोग आपकी कथा सुनने के लिये सर्वथा उद्यत हैं।
सूतपुत्र उग्रश्रवा ने कहा—भृगुनन्दन ! वैशम्पायन आदि श्रेष्ठ ब्राह्मणों और महात्मा द्विजवरों ने पूर्व काल में जो पुराण भली- भाँति पढ़ा था और उन विद्वानों ने जिस प्रकार पुराण का वर्णन किया है, वह सब मुझे ज्ञात है। मेरे पिता ने जिस पुराण विद्या का भली- भाँति अध्ययन किया था, वह सब मैंने उन्हीं के मुख से पढ़ी और सुनी है। भृगुनन्दन ! आप पहले उस सर्वश्रेष्ठ भृगु वंश का वर्णन सुनिये जो देवता, इन्द्र, ऋषि और मरूद्रणों से पूजित है। महामुने ! आपको इस अत्यन्त दिव्य भार्गव वंश का परिचय देता हूँ। यह परिचय अद्भत एवं युक्तियुक्त तो होगा ही, पुराणों के आश्रय से भी संयुक्त होगा। हमने सुना है कि स्वयम्भू ब्रह्मजी ने वरुण के यज्ञ में महर्षि भगवान भृगु को अग्नि में उत्पन्न किया था। भृगु के अत्यन्त प्रिय पुत्र च्यवन हुए, जिन्हें भार्गव भी कहते हैं। च्यवन के पुत्र का नाम प्रमति था, जो बडे़ धर्मात्मा हुए। प्रमति के घृताची नामक अप्सरा के गर्भ से रूरू नामक पुत्र का जन्म हुआ। रूरू के पुत्र शुनक थे, जिनका जन्म प्रेमद्वरा के गर्भ से हुआ था। शुनक वेदों के पारंगत विद्वान और धर्मात्मा थे। वे आपके पूर्व पितामह थे। वे तपस्वी, यशस्वी, शास्त्रज्ञ तथा ब्रह्मवेत्ताओं में श्रेष्ठ थे। धर्मात्मा, सत्यवादी और मन इन्द्रियों को वश में रखने वाले थे। उनका आहार-विहार नियमित एवं परिमित था।
शौनकजी बोले—सूतपुत्र ! मैं पूछता हूँ कि महात्मा भार्गव का नाम च्यवन कैसे प्रसिद्ध हुआ? यह मुझे बताइये।
उग्रश्रवाजी ने कहा- महामुने ! भृगु की पत्नी का नाम पुलोमा था। वह अपने पति को बहुत ही प्यारी थी। उसके उदर में भृगु जी के वीर्य से उत्पन्न गर्भ पल रहा था। भृगुवंश शिरोमणे! पुलोमा यशस्वी भृगु की अनुकूल शील-स्वभाववाली धर्मपत्नी थी। उनकी कुक्षि में उस गर्भ के प्रकट होने पर एक समय धर्मात्माओं में श्रेष्ठ भृगुजी स्नान करने के लिये आश्रम से बाहर निकले। उस समय एक राक्षस, जिसका नाम भी पुलोमा ही था, उसके आश्रम पर आया। आश्रम में प्रवेश करते ही उसकी दृष्टि महर्षि भृ्गु की पतिव्रता पत्नी पर पड़ी और वह कामदेव के वशीभूत हो अपनी सुध-बुध खो बैठा। सुन्दरी पुलोमा ने उस राक्षस को अभ्यागत अतिथि मानकर वन में फल-मूल आदि से उसका सत्कार करने के लिये उसे न्योता दिया। ब्रह्मन ! वह राक्षस काम से पीडि़त हो रहा था। उस समय उसने वहाँ पुलोमा को अकेली देख बड़े हर्ष का अनुभव किया, क्योंकि यह सती-साध्वी पुलोमा को हर ले जाना चाहता था। मन में उस शुभ लक्षणा सती के अपहरण की इच्छा रखकर वह प्रसन्नता से फूल उठा और मन-ही-मन बोला, ‘मेरा तो काम बन गया।’ पवित्र मुसकान वाली पुलोमा को पहले उस पुलोमा नामक राक्षस ने वरण[1]किया था।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ बाल्यावस्था में पुलोमा रो रही थी। उसके रोदन की निवृत्ति के लिये पिता ने डराते हुए कहा- रे राक्षस ! तू इसे पकड़ ले घर में पुलोमा राक्षस पहले से ही छिपा हुआ था। उसने मन ही मन वरण कर लिया--‘यह मेरी पत्नी है।’ बात केवल इतनी ही थी। इसका अभिप्राय यह है कि हँसी खेल में भी या डाँटने डपटने के लिये भी बालकों से ऐसी बात नहीं कहनी चाहिये और राक्षस का नाम भी नहीं रखना चाहिये।